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"आपका कहना बहुत सही है। हम आये किसी और विषय को लेकर, यहाँ बातचीत हुई कुछ और ही।" मायण ने कहा।
"ऐसा कुछ नहीं हुआ। आप जिसके लिए आये उसका तो उत्तर दिया जा चुका है। हमने अन्य विषयों पर भी बातचीत की, इतना ही। इसमें गलत क्या हो गया?" स्थपति जी ने प्रश्न किया।
"तो ऐसा ही समझू कि कोई गलती नहीं हुई। क्योंकि मेरी पत्नी ने आपकी सन्तान के विषय में पूछा जो बहुत बड़ी गलती थी।" मायण बोला।
"यह तो आमतौर पर सब पूछा ही करते हैं। इसमें गलत क्या?" स्थपति ने कहा।
"गलत तो है ही। आपसे आपके परिवार के विषय में कोई कुछ न पूछे, यह राजमहल की आज्ञा है।" मायण बोला।
स्थपति ने आश्चर्य से देखा, फिर हँस पड़ा।
"क्यों, मेरी बात हैंसने की-सी थी? उसमें ऐसा क्या था, जो हँस पड़े।" पायण ने पूछा।
"आपकी बात पर हँसी नहीं आयी। अपने व्यवहार ने ही मुझमें हँसी पैदा कर दी, हंस पड़ा। परे लिए आप एक सहायता कर सकेंगे?" स्थपति ने पूछा।
"हमसे हो सकेगा तो वह हमारा सौभाग्य होगा।" मायण बोला।
"आपसे हो सकता है। मैं पट्टमहादेवी से एकान्त में मिलना चाहता हूँ। यदि वे मेरो प्रार्थना को अस्वीकार भी कर दें तो मुझे दुःख न होगा। चट्टलदेवी कृपा करके मेरी इस प्रार्थना को पट्टमहादेवी तक पहुँचा भर दें और उनकी स्वीकृति मेरे लिए ले लें।" स्थपत्ति ने कहा।
"पट्टमहादेवी का दर्शन आपके लिए दुःसाध्य तो है नहीं। परन्तु एकान्त दर्शन शायद सम्भव न हो। महासन्निधान, पट्टमहादेवौजी के बच्चे, दण्डनायक, बिट्टियण्णा इनके अतिरिक्त और किसी पुरुष के लिए एकान्त दर्शन करने का अवकाश सम्भव नहीं।" चट्टलदेवी ने कहा।
"प्रयास कर देखें।" "मैं रहूँ तो आपको क्या आपत्ति है ?" चट्टलदेवी ने पूछा।
"तुम यदि रह सकती हो तो दूसरे कोई भी रह सकते हैं । दायित्व समझने वाले छोटे दण्डनायकजी भी रह सकते हैं। परन्तु मैं चाहता हूँ सम्पूर्ण एकान्त दर्शन।"
"आप सन्निधान से ऐसे एकान्त में कौन-सा रहस्य बताना चाहते हैं, उसका स्वरूप कुछ स्पष्ट करेंगे?
"कृपा करके यह सब रहने दें। वह सब मैं सन्निधान के सम्मुख ही निवेदन करना चाहता हूँ। यही इच्छा है। उन्होंने मुझसे जो बात कही उसकी
पट्टपहादेवी शान्तल्ना : भाग तीन :: 325