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हो, जिससे वह प्रेम करती है। पुरुष स्त्री के जीवन को सार्थक भी बना सकते हैं, चाहें तो उसे राख भी कर सकते हैं। मैं कैसी ज्वाला में जल रही थी सो एक स्त्री ही जान सकती है। कोई भी पुरुष नहीं समझ सकता।" चट्टलदेवी ने कहा।
"इसीलिए पट्टमहादेवीजी ने हम दोनों में आत्मविश्वास पैदा किया, आपस में विश्वास जगाया। उस महान् माँ ने हमारे जीवन को स्वर्ग बनाया।" मायण ने चट्टला की राय से अपनी राय मिला दी।
"उनका व्यक्तित्व ही महान् है। पुराकृत संस्कार का पुण्य फल है। हेगड़े दम्पती से अधिक भाग्यशाली कौन हो सकते हैं ? सन्तान हो तो ऐसी हो। केवल बच्चों को जन्म देने से जनसंख्या को बढ़ाने में हो सहायता होती है, इससे दाम्पत्य जीवन के कर्तव्य का पालन नहीं होता।"
"आपके कितने बच्चे हैं, स्थपतिजी?" चट्टला ने अचानक पूछ लिया।
मायण को यह ठीक नहीं लगा। उसने कुछ असन्तोष की दृष्टि से उनकी ओर देखा। चट्टला का ध्यान उधर गया ही नहीं। उसमें उत्साह भर आया था। उसने पूछा, “आपकी कला को जीवित रखना हो..." वह कुछ और पूछना चाहती थी।
इतने में स्थपति ने उसे रोका और बात को बदलने के विचार से कहा, "देखिए, यहाँ निामत होनेवाला मन्दिर मेरी कला को स्थायी बनाकर हजारों वर्षों तक जीवित रखेगा।"
"वह आपकी कला का प्रतीक बनकर रहेगा। परन्तु, इस परम्परा को प्रबुद्ध कर उसमें नवीनता उत्पन्न करता हो तो आपकी कला को आगे बढ़ानेवाली सन्तान और शिष्यवृन्द भी तो होने चाहिए?"
"सोचने का विषय है। एक काम करो, चट्टलदेवी। सन्निधान से कहो कि वे एक वास्तुशिल्पशाला की स्थापना करा दें। ऐसा हो जाए तो अनेक उत्साही शिल्पियों को विद्यादान कर सकता हूँ।"
"अभी नृत्य, संगीत और साहित्य के लिए शालाएँ तो हैं ही। उनके साथ शिल्पकलाशाला की स्थापना भी युक्त रहेगी। पट्टमहादेवीजी इसे मान लेंगी।" चट्टलदेवी ने कहा।
__ "स्थपति जी, आप ही निवेदन करें तो ठीक होगा। हम तो केवल सेवक ठहरे।" मायण ने कहा।
"आपकी पट्टमहादेवीजी में इस तरह का भेदभाव है ही नहीं। वे विषय ग्रहण करेंगी, उसे सुझानेवाले व्यक्ति की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाएगा।" स्थपति ने कहा।
324 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन