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लगा। फिर भी साहस करके बोला, "मुझसे यदि कुछ अनुचित हुआ हो तो क्षमा माँगता हूँ।"
''आपके मन में यह भावना क्यों आयी :'' शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"मेरे मन में बलिपुर के हेग्गड़ेजी की पुत्री की छाप स्थायी रूप से अंकित हो गयी है। वे आज पोय्सल राज्य की पट्टमहादेवी हैं। बाल्यकाल की वह अनौपचारिकता अब तो बरती नहीं जा सकेगी, आदि। चित्र बनाते समय मुझे नहीं लगा। इसलिए मेरा अपराध क्षम्य है।"
"आपकी पट्टमहादेवी ने अब जिस देव मन्दिर का निर्माण हो रहा है उसके कार्य में अपना पूरा योगदान देने का वचन गुरुवर्य को दे रखा है। ऐसे में इस चित्र की रचना में आपकी कल्पना के लिए मेरी रत्ती-भर ही सही, जो सेवा समर्पित हुई है, उससे मुझे एक तृप्ति ही हुई है, इसमें क्रोध करने की बात ही नहीं। इसलिए आपको शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा।
तुरन्त बिट्टियण्णा ने पूछा, "तो मन्दिर के बाहर सजाने हेतु सुन्दर मूर्तियों को तैयार करने के लिए सुन्दर भाव-भंगिमाओं को सन्निधान दे सकेंगी न?"
शान्तलदेवी ने विशेष दृष्टि से उसकी ओर देखा।
प्रसंग बदलकर अन्य किसी बात की ओर जाएँ तो ठीक न होमा, समझ कर स्थपति ने कहा, "हमारे ये दण्डनायकजी स्वभात्र से चपल हैं। अभी किशोर हैं । कब क्या कहना चाहिए. क्या नहीं, कहाँ कहना चाहिए, कहाँ नहीं आदि श्वासों पर विचार नहीं करते, यही समझना चाहिए।"
"नहीं, मेरा बिट्टि मेरे साथ अधिक मिलनसारी है। यह तो मेरी गोद में पला है न? कोई पहली बार नहीं, यह बात उसने कई बार कही है। प्रेमावेश में। किन्तु वह सब करना हो कैसे सकता है?" शान्तलदेवी ने कहा।
"सच है। सच है।"
"अब जो चित्र बने हैं उन्हीं में से कुछ को मूर्तरूप देने का काम प्रारम्भ करें। मैं ऐसे चित्रों को चुनकर भेज दूंगी। शेष बातों पर बाद में विचार करेंगे। शिल्पीजी अब जो विचार-विनिमय हुआ है उसके आधार पर नये चित्र को बनाइएगा। चलो बिट्टि! मायण और चट्टला से बहुत बातें जानने की हैं।" कहकर शान्तलदेवी बिट्टियण्णा के साथ राजमहल की ओर चली गयीं।
322 :: पट्टमहादेवी शान्तता : भाग तीन