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लक्ष्य कला को उच्चस्तर तक ले जाना है। इसे मत भूलिए।"
" इस प्रश्न को पूछा हैं तो सन्निधान को कुछ लगा होगा... " चावुण बोला । ""हाँ, इसीलिए पूछा।"
"सन्निधान को जो लगा, उसे बताने की कृपा करें तो..." चावुण ने विनीत भाव से कहा ।
"छिपा रखने के लिए यहाँ है ही क्या ? ज्ञानाधिदेवता सरस्वती यहाँ दो रूपों में दिखाई पड़ी। कण्ठ से नीचे का भाग अर्थात् शरीर और हाथ-पैर प्रौढ़ा के और मुख मात्र छोटी कन्या का सा लगता है। है न स्थपतिजी ?"
"हाँ ।"
" इसीलिए नये तौर से मन में उत्पन्न कल्पना पुरानी स्मृति है। उसके अव्यक्त मिलन ने इस चित्र में रूप धारण किया है। ऐसा लगा मुझे तो । "
" फिर भी यहाँ निष्कल्मष भाव होने के कारण चित्र सुन्दर ही है । " स्थपति ने प्रश्न किया।
"मैंने पूरे चित्र के स्वरूप पर विचार नहीं किया। इस चित्र के उद्भव की कौन - सी प्रेरणा चित्रकार के मन में उत्पन्न हुई होगी; इसे सोचते समय मुझे जो लगा वह मैंने बताया। अच्छा रहने दीजिए। शिल्पीजी तो कुछ कह नहीं रहे " शान्तदेवीचे की ओर देखा ।
उसने संकोच के साथ धीमी आवाज में कहा, "हाँ, सन्निधान का कहना ठीक है । नाट्य - सरस्वती के चित्र की कल्पना मेरे मन में बलिपुर में उत्पन्न हुई। सन्निधान हममें से एक होकर जब रहीं तब उनका नृत्य-वैभव देखा तो वह स्वरूप मेरे मानसपट पर अंकित होकर रह गया था। परन्तु उस मानसिक कल्पना ने अब दो दिन पहले रूप धारण किया। सन्निधान के बाल्यकाल का मुख ही मेरे चित्त में स्थायी रह गया था।"
शान्तलदेवी को बलिपुर की वे पुरानी सारी घटनाएँ याद आयें। खासकर युवरानी एचलदेवी जब दोनों राजकुमारों के साथ ठहरी थीं, उस समय की एक-एक घटना आँखों के सामने से गुजर गयी। मन-ही-मन कहने लगीं, "वह सोने के दिन फिर लौटेंगे नहीं। निर्मल मनोभाव का वह बाल्य, निःस्वार्थ शुद्ध प्रेम, कितना महान् है ! उम्र बढ़ते-बढ़ते, पता नहीं कौन-कौन-सी आशाएँ आकांक्षाएँ, कैसे-कैसे स्वार्थ आदि मन में घर कर लेते हैं और मानव को कलुषता - भरे मार्ग में घसीट ले जाते हैं।" इत्यादि इत्यादि कई विचार मन में बह गये।
थोड़ी देर मौन छाया रहा।
चावुपण सोचने लगा : क्या मैंने कोई भूल की ? और अगर ऐसी कोई भूल की हो तो उसका आगे परिणाम क्या हो सकता है। शंका के साथ भय भी लगने
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तोन 321
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