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सकता। जहाँ चेतना हो वहाँ स्पन्दन हैं और जहाँ स्पन्दन वहाँ गति, लय।" स्थपति ने कहा।
"लय का अनुभव हुए बिना केवल ऊहा पर उसे स्वीकार कैसे करें?" बिट्टियण्णा ने पूछा।
"अनुभव को दण्डनायकजी कैसे पहचानेंगे?" स्थपति ने प्रश्न किया। "देख, सुन, विचार के माध्यम से अनुभव को पहचाना जाता है।" "सभी के कान और आँख एक समान ग्रहणशील रहते हैं ?" "सो कैसे सम्भव है?"
"एक की आँख को स्फुट रूप देखकर उससे जो अनुभूति होती है वह उन जैसी तेज आँख जिनकी न हो उसे हो सकेगी?"
"नहीं।" "फिर एक का अनुभव अनुभव नहीं है?" ''इससे कोन असहमत होगा? "जिसे अनुभव नहीं, वही असहमत होगा, है न?'' "हाँ।"
"इसलिए सहज ही हमारी पंचेन्द्रियों से अनुभूत नहीं होनेवाले फिर भी अनुभूत हो सकनेवाले कई अनुभव हो सकते हैं। इस बात को मान सकते हैं न?"
"माना जा सकता है।"
"इसी सूत्र के अनुसार यहाँ हमें प्रकृति सहज ही जिसे हम गति, लय आदि कहते हैं, वह अगोचर होने पर भी इसमें है, यह मानने में आपत्ति क्या है? इसलिए हम जिस पत्थर में स्पन्दन उत्पन्न करें यह नाद से भी पूर्ण है।" स्थपति ने कहा।
"पत्थर में नाद की अभिव्यक्ति कैसे...इसे भी आप बताइए।" चावुण ने कहा। "पत्थर को पत्थर से टकरा दें तो क्या होता है?" "ध्वनि निकलती है।"
"वह ध्वनि भी स्पन्दन के ही कारण निकलती है। हमारे कण्ठ से नाद ध्वनि-तन्त्रियों के स्पन्दन से निकलता है। इस नाद के उत्पन्न होने से अक्षर और शब्दबोध साध्य हो सका। एक-एक अक्षर के बोलते समय उसके पहले भिन्नभिन्न तरह से नाद स्पन्दन कण्ठ की नाद-तन्त्रियों में हमारी श्वासक्रिया से होता है। अर्थात् हम जिस तरह का नाद चाहते हैं उसे निकालना साध्य हो सकता हैयही हुआ न? इसी तरह पत्थर से नाद का उत्पन्न होना जब हो सकता है, तब वहाँ जिस नाद को हम चाहते हैं, उसे उत्पन्न करना, उसे रूप देनेवाले शिल्पी में इतनी बुद्धिमत्ता होनी चाहिए, बस। मेरी बात शिल्पीजी को ठीक लगी?'
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 319