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आपको कैसी लगी, बता सकेंगे?"
"इसके रचनेवाले के मन में क्या भाव रहा सो तो नहीं कह सकता। मैंने उनसे पूछा भी नहीं। मेरी अपनी दृष्टि में तो यह उनके मन में उत्पन्न ज्ञानाधिदेवता कहा जा सकता है।"
"ज्ञानाधिदेवता से आपका मन्तव्य सरस्वती है न?"
“ऐसा समझने के लिए आपने इसमें क्या देखा? चतुर्भुज हैं, इसीलिए ऐसा सोचा?"
"हम सभी देवताओं के चार हाथ बनाते हैं। इतने से यह निर्णय नहीं किया जा सकता । ऊर्ध्व-बाहुओं में नृत्य-विन्यास और खड़े हुए शरीर में नाट्य-भंगिमा के रहने से उनकी कल्पना की देवी नृत्यरूप में विराजती है। शेष दो हाथों को देखने से अनुमान कर सकते हैं। दायें हाथ में मणिमाला, ध्यान, अप और मनन का प्रतीक है। बायें हाथ में लेखन के प्रतीक ताड़पत्र हैं। यह ज्ञान का संकेत है। इसलिए इसे उनकी कल्पना में नाट्य-सरस्वती कहा जा सकता है। सन्निधान की क्या राय है?" स्थपति ने पूछा।
"यह नाट्य-नाद-सरस्वती हो तो...?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"हाँ। इसमें ज्ञानाधिदेवता वीणापाणि नहीं हैं। इसलिए सन्निधान की सलाह युक्तियुक्त है।"
"तो इस नृत्य-सरस्वती के हाथ में वीणा देना-यही तात्पर्य है ? ऐसा कर सकना सम्भव है, स्थपतिजी?"
"इस भंगिमा में सम्भव नहीं।" "यह भंगिमा बहुत भावपूर्ण है। और उतनी ही सांकेतिक भी है न?" "हाँ।" "यह नाद-प्रतीक भी बने तो अच्छा रहेगा!"
"अच्छा विचार है। यह सोचना है कि इसे कैसे बनाना होगा। इसकी जिन्होंने कल्पना की उन्हीं से पूछ सकते हैं न?"
"उनसे भी पूछेगे। पहले यह जानें कि उनकी क्या कल्पना है। बाद में चर्चा करेंगे। परन्तु हम उन्हें एक नयी सूचना दे रहे हैं। सूचना नयी होने के कारण एकदम उन्हें कुछ नहीं सूझ सकता है। हम इस सम्बन्ध में सोचकर कुछ सलाह दें तो कोई भूल नहीं होगी न?"
"कुछ नहीं।"
"आप भी सोचिए, मैं भी सोचूंगी, बिट्टी तुम भी सोचो। यह सोचने की क्रिया चलती रहे। एक और बात। यह चित्र बहुत अच्छा लग रहा है। परन्तु यह जैसा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन ;: 377