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मंचणा को लगा कि उनके शरीर को छूकर देखें, वह साहस न कर सका, यों ही लौट गया।
दोपहर के बाद स्थपति अपने कार्यस्थान पर आया। घावुण अपने चित्रों को स्थपति के हाथ में देकर चला गया। स्थपति भी अपने काम में लग गया। पट्टमहादेवी और बिट्टियणा आये। आते ही स्थपति को देखकर शान्तलदेवी ने पूछा, "जब स्वास्थ्य अच्छा नहीं था तो क्यों आये, स्थपतिजी?"
उसने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। "कुछ गड़बड़-सा था, अब कुछ नहीं, ठीक है।" उसने धीरे-से निवेदन किया। इतने में पट्टमहादेवी और बिट्टियण्णा अपनेअपने स्थान पर बैठ गये।
स्थपति ने चावण से लिये चित्रों को पट्टमहादेवी के हाथ में देकर कहा, "ये चातुण को रचनाएँ हैं। किन-किन को रूपित करना है, इसके बारे में सन्निधान ने निर्णय किया हो तो आज्ञा दें। इनमें भी किसी को चुनें तो उनको सम्मिलित किया जा सकता है।"
शान्तलदेवी और बिट्टियण्णा ने चावुण के चित्र देखे। अनन्तर शान्तलदेवी ने पूछा, "आपकी क्या राय है?"
"मुझे ठीक नहीं लगा होता तो मैं उन्हें सन्निधान को दिखाता ही नहीं। मेरे चित्रों में भी चुनाव होना ही है न? उस चुनाव में इसे भी स्थान दिया जा सकता है।" स्थपति बोला।
"वही करेंगे।"
"सन्निधान ने जिन चित्रों को चुन लिया है, उन्हें बता दें तो काम बाँटा जा सकेगा।" धीरे से स्थपति ने विनती की।
"एक तरह से कुछ समर्पक लगे हैं। फिर भी आपकी योजना के लिए उपयुक्त सभी चित्र मिलेंगे-यह कहा नहीं जा सकता।"
"सन्निधान को जो समर्पक लगे हैं..." स्थपति कह ही रहा था कि बीच में शान्तलदेवी ने कहा, "अब तो महासन्निधान शीघ्र ही आनेवाले हैं। उनके आने के बाद ही निर्णय करेंगे।"
"जैसी आज्ञा!" बात यहीं समाप्त हो गयी।
शान्तलदेवी फिर चावुण के चित्रों को देखने लगीं। सब देख चुकने के बाद पूछा, "स्थपतिजी, चाबुण जी को बुलवाएँगे?"
"जो आज्ञा" कह स्थपति वहाँ से बाहर गया; सेवक से चावुण को कहला भेजा और खुद आकर खड़ा हो गया।
शान्तलदेवी ने बैठने को कहा। स्थपति के बैठते ही शान्तलदेवी ने अपने पास के चित्रों में से एक को निकालकर उनके हाथ में देते हुए पूछा, "यह कल्पना
316:: पद्रमहादेवी शान्तला : भाग तीन