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"अब यह बात क्यों उठी, देवी? आपके महान् त्याग से मुझे और राजलदेवी को आपका प्रेम बाँट लेने का सौभाग्य मिल सका। हम इसके लिए आजीवन ऋणी हैं परन्तु आपके उस त्याग का मूल्य हम क्या लगा सकेंगी? क्या देकर उस ऋण को चुका सकेंगी?"
'बम्मलदेवी, मैं इस विषय पर बातचीत करना नहीं चाह रही थी। परन्तु, पता नहीं. यह क्यों छिड़ गया।"
"यों ही यह नहीं छिड़ा। एक विकट आग्रह के कारण यह बात उठी है। पहले इस स्थान पर जो भावनाएँ आपके मन में उत्पन्न हुई थीं वे सब अब हवामहल की तरह बन गयी-ऐसा आप सोच रही हैं-यह भावना आपके मन में अन्तर्मुखी होकर बह रही है। ऐसा क्यों?"
"मुझमें सौतिया डाह नहीं है, बम्मलदेवी।"
"वह हमारा सौभाग्य है। आपने हमें जो भाग्य दिया उसके बदले में हम आपके आनन्द को ही लोप कर रही हैं। अब तो यही लग रहा है।"
"मैंने यह आशय तो नहीं प्रकट किया न?"
"आपने कहा नहीं। परन्तु स्थिति तो वही है, ऐसा मुझे प्रतीत होने लगा है। भूल हमारी ही है। आपके आनन्द के मार्ग में हम बीच में पड़कर उसे आपसे छीन रही हैं।"
'बम्मलदेवी, मैंने इच्छापूर्वक तुम्हारा विवाह कराया है। मुझे सन्तोष नहीं होता तो मैं क्या यह काम करती? जो आनन्द सन्निधान को मिलता है, उसमें आधा आनन्द उनकी अर्धांगिनी होने के नाते मुझे मिलता है। स्त्री, माँ होकर, पत्नी होकर, बेटी बनकर अलग-अलग रूप में पुरुष के जीवन में सन्तोष भर सकती है; स्वार्थ प्रधान हो जाएँ तो वह दुःसाध्य हो जाता है। मेरे दाम्पत्य जीवन के प्रारम्भिक दिन इसी तरह के स्वार्थ से शायद भरे थे। इसीलिए वैसा आनन्द हमेशा बना रहे, यह इच्छा उत्पन्न हुई थी परन्तु जैसे-जैसे दिन बीतते गये और अनुभव ज्यों-ज्यों बढ़ा वह स्वार्थ ढीला पड़ गया। मानसिक सुख और शान्ति प्रधान हो गये। ऐसी स्थिति में आनन्द प्राप्त करने की रीति को भी बदलना पड़ा। वास्तव में अब मैं एक तरह से निश्चिन्त हूँ। क्योंकि मेरा कोई भी कार्य महामातृश्री को मैंने जो वचन दिया है, उसके लिए बाधक न हो यही मेरी रीति है। आपके हाथ में सन्निधान उतने ही सुखी हैं जितने मेरे निकट रहने से। आपका साथ मिलने से सन्निधान को कोई कमी महसूस नहीं हुई है। अपने दुःख को दूसरों पर लादकर उनके आनन्द में विष नहीं घोलना चाहिए। बल्कि उनके आनन्द को ही हमें अपना समझना चाहिए। यही जीवन का रहस्य है।"
''मुझमें तो इतनी दूर तक विचार करने की शक्ति नहीं है। हमारे जीवन की
3.36 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन