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एक स्तम्भ को भिन्न-भिन्न कलात्मक रूप-रखाओं से सजाया था। मन्दिर की बाहरी आकृति भी सुन्दर आकर्षक ढंग से बनी थी। बाँस-बाँस की दूरी पर स्तम्भों के सहारे आगे बढ़े खाने बने थे। उन खानों में देवी-देवताओं के सुन्दर विग्रहों को सजाने की कल्पना की गयी थी। वास्तव में वह एक नयी कल्पना थी। चालुक्य चोल, कदम्ब-शिल्प से अधिक मेल खानेवाले अन्य चित्रों के बदले इस रेखाचित्र को चुन लिया गया था।
"नयी कल्पना को रूपित करनेवाला शिल्पी अगर अपने को बड़ा समझेगा तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?" शान्तलदेवी ने कहा।
"यह कुछ अतिरिक्त ही लगता है।"
"यह अतिरिक्तता तो इस वयं का लक्षण ही है। केवल डाँग मारते रहनेवाले इस समय में, वास्तव में जिसने एक भव्य कल्पना की और उसे मूल्य भी मिल गया-यह ठीक ही है। ऐसे अवसर पर यह गर्व भी करें तो वह क्षम्य होना चाहिए।"
"पट्टमहादेवी की स्वीकृति मिली है, इस वजह से कोई उसके व्यवहार के सम्बन्ध में बात नहीं करता। सब उससे डरते हैं।"
"तो यही समझना चाहिए कि पट्टमहादेवी के व्यवहार के बारे में भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी है।"
"न, न, ऐसा कुछ नहीं। सभी के हृदयों में पट्टमहादेवीजी के प्रति बहुत गौरव और सम्मान का भाव है।"
"हो सकता है। परन्तु स्वीकृति देने पर यह नहीं समझना चाहिए कि उसमें जो त्रुटियाँ हैं उनके प्रति में अचेत हूँ। यह भाव भी लक्षित होता है। इससे वे डरते हैं। डरना ही कायरता का लक्षण है। जो अच्छे को चाहते हैं वे सदा अच्छे को ही चाहेंगे। यह चाहत केवल कार्य से सम्बन्धित है। वहीं तक वह सीमित है। सबके सभी कार्य सदा प्रशंसा नहीं होते। फिर मानव सहज ही अपरिपूर्ण है। इसीलिए मानव में क्षमागुण ने उन्नत स्थान पाया है। और वह हमारी संस्कृति को उन्नत बनाने का मुख्य साधन है। दण्ड मानवता को रूपित करता है और उसे ऊँचा बनाता है। परन्तु क्षमा उससे भी अधिक प्रभावशाली ढंग से उसको रूपित कर उन्नत स्तर पर पहुंचाती है। यह मेरे अनुभव की बात है। अनुकूल समय मिलने पर तुम शिल्पियों को समझाओ। मन्दिर की रचना के विषय में जिसको जो सूझे उसे वे स्थपति को बतावें, अगर स्थपति के द्वारा सही ढंग से समाधान-सन्तोष न मिले तो वे सीधे मेरे पास आ सकते हैं। डरने की कोई आवश्यकता नहीं। उनके डर को दूर करने की दिशा में यह प्रथम और अनिवार्य है।"
"उसकी परवाह न कर, उसकी राय को अमान्य करके, शिल्पियों को पट्टमहादेवीजी स्वयं बुलवावें तो यह स्थपत्ति को शायद अच्छा न लगे, यह भी सम्भव
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 221