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निर्देश पाने के बाद कहना ही क्या!" मायण ने कहा ।
"क्यों भायण? तुमको कोई नयो बीमारी लग गयी है ?" शान्तलदेखी ने
पूछा।
मायण अकचकाकर शान्तलदेवी की ओर देखने लगा।
"ऐसे क्यों देख रहे हो?" शान्तलदेवी ने पूछा ।
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"सन्निधान ने जो कहा वह समझ में नहीं आया... इसलिए .. ' मायण कहते-कहते रुक गया।
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'महासन्निधान ने तुमको भाट का नया काम करने के लिए नियुक्त तो नहीं किया है ?"
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ओह... क्या करूँ? मेरे जीवन को सार्थक बनाने में, उसकी कंडुआहट को दूर कर उसे मीठा बनाने में सन्निधान ने जो कुछ किया, उस सबका स्मरण रखनेवाले मेरे लिए यह सहज ही है। मैंने भाट का काम नहीं किया। मैंने तो वस्तुस्थिति का निवेदन किया है।" मायण बोला।
'अच्छा! अब चलो चलें, बल्लू, तुम लोगों को देखकर कितना खुश होगा, उसकी उस प्रसन्नता में अब और विलम्ब ठीक नहीं। स्थपतिजी! विग्रह के बारे में फिर सोचेंगे, ” कहकर शान्तलदेवी चल पड़ीं। स्थपति को छोड़ शेष सब राजमहल में चले गये।
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स्थपति अपने कार्य स्थान पर आकर बैठ गये। मायण की बात उनके मन को गहराई से कुरेद रही थी। चट्टला-मायण का जीवन कितनी कडुआहट से भर आ रहा होगा—इसकी वह कल्पना नहीं कर सकता, ऐसा नहीं। ऐसी कडुआहट में मिठास पैदा करनेवाली शान्तलदेवी का व्यक्तित्व कैसा होगा ! उनका स्मरण होते ही उनकी बातें प्रत्यक्ष हो उठीं। अपना दुःख-दर्द दुनिया को हमसे प्राप्त हो सकनेवाले हित के बीच रुकावट बनकर नहीं आना चाहिए। कला की सृष्टि करने के लिए जनमे प्रतिभावान कलाकार को प्रभावपूर्ण कला सृष्टि के लिए, सदा सजग रहना होगा। आँख, कान, बुद्धि-- इन्हें सदा क्रियाशील रहना होगा। अपने दर्द को आगे करके दुनिया से और कला - कारिता से विमुख होना अपनी प्रतिभा के साथ द्रोह करना है। सच है। परन्तु जब दर्द अन्दर-ही-अन्दर सालता रहता है और वह समय पाकर जब बृहदाकार रूप धारण कर सामने आता है तो हमें असहाय बना देता है न! इस दर्द को जड़ से उखाड़ बाहर फेंक देना होगा। उसे वैसे ही रहने दें तो अन्दर ही अन्दर आग बनकर जलाएगा। कम-से-कम आत्मीयों से कहे तो दुख भार कम हो जाएगा। पट्टमहादेवी ने एक बार यह बात कही थी। ऐसा करेंगे तो कैसा हो ? अब तक जिस पारिवारिक रहस्य को छिपा रखा था. उसके प्रकट होने पर सही सही मान-मर्यादा भी चली जाएगी । यों
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312 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग होन