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स्थपति की विचारधारा टेढ़े-मेढ़े रास्ते में बहती रही। चावुण के आने पर ही यह भंग हो सकी।
"क्यों शिल्पीजी, कोई अड़चन पैदा हो गयी है ?" स्थपति ने पूछा । "कोई अड़चन नहीं! राजमहल ने जो सलाह दी उस पर अग्रजों की असहमति रही। एक तरह से उनका कहना है की सूचना के अनुसार काम करेंगे तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी। मुझे ऐसा कोई अहंकार नहीं कि जो कुछ मैं करता हूँ, वह सब सही है। अहंकार कलाकार का पहला शत्रु है। मेरे पिताजी यही कहा करते हैं। मेरे दादा रामोजी वे भी यही कहा करते थे । इसलिए मैंने रात को जो चित्र बनाये वे यदि आपको न भी जँचें तो मुझे कोई दुःख न होगा, आप उन्हें देखकर अपनी राय देने की कृपा करें। आपको ठीक लगे तो उन्हें शिल्प में उतारने के लिए अनुमति प्रदान करेंगे।" यों कहकर अपने बनाये कुछ चित्र स्थपति के सामने रखे ।
'इन्हें पट्टमहादेवी जी के
स्थपति ने उनको मनोयोग से देखा और बताया, समक्ष रखकर उनकी इच्छा के अनुसार... ।"
"वहाँ तक जाना होगा? आप ही निर्णय दे दें!"
"मैं ही निर्णय करूँ तो वे मना नहीं करेंगी। मैंने स्वयं अपनी कल्पना के चित्रों को चुनाव के लिए उन्हें दे रखा है। यह सहज बात हैं कि हर कलाकार अपनी कल्पना को श्रेष्ठ एवं उत्तम समझे। दूसरा कोई सहृदय कलाकार उसे पसन्द करे तो उसका मूल्य कहीं अधिक होता है।"
चावुण बीच में ही बोल उठा, "इसीलिए मैं आपके पास लाया हूँ।" 'अपने पिताजी को दिखाए ?"
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'नहीं !"
"क्यों ? उनके अनुभव के सामने भला मेरा अनुभव क्या है। वास्तव में मैं उनके सामने कितना छोटा हूँ !"
"इसीलिए आपके पास आया। सभा में शेष सब शिल्पियों ने जब निर्णय किया कि किसी को कोई चित्र बनाने की आवश्यकता नहीं, तब उनका भी वही अभिमत था । इसलिए लगता है, पिताजी मेरे इस कार्य को शायद प्रोत्साहन नहीं देंगे ।"
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"ऐसा अनुमान लगाना अच्छा नहीं। एक बार उन्हें दिखाइए। बाद में पट्टमहादेवीजी से विचार-विनिमय कर निर्णय कर लें। "
"यदि ऐसी आज्ञा दें तो कोई दूसरा चारा नहीं। परन्तु आपने अपनी राय नहीं बतायी ?"
" देखनेवाले के अन्तरंग को अच्छी कृति सीधा अपना सन्देश पहुँचा देती है।
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन 313