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।'नहीं।" 'तभी तो...क्या लाभ कोरे प्रश्नोत्तर से?"
इतने में राजमहल के एक सेवा में आकर कहा, "हमहादेवीजी मुखइय में उपस्थित हैं। स्थपति के बारे में उन्होंने पूछा है। शीग्रता करें।''
वह जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ चला।
थोड़ी देर बाद एक कर्मचारी ने आकर रेविमय्या के कान में कुछ कहा। रेविमय्या ने अपनी सम्पति जतायी और उस शिल्पी को साथ लेकर वह सजमहल के अन्दर पहुंचा।
उधर स्थपति मुखमण्डप में पहुँचकर अपने लिए सुरक्षित एक आसन के पास आया और पट्टमहादेवी को विनीत भाव से झुककर प्रणाम किया. "पट्टमहादेवीजी क्षमा करें। मेरे आने में विलम्ब हुआ। सन्निधान के अमूल्य समय को व्यर्थ करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।"
"अब यह तो कोई बड़ी बात नहीं। आज यहाँ एकत्रित शिल्पी-सभा का उद्देश्य प्रधान है। हमारे कुँबर बिट्टियण्णा इसके उद्देश्य को स्पष्ट करेंगे।" शान्तलदेवी ने कहा।
कुँवर बिट्टियण्णा उठ खड़ा हुआ। झुककर प्रणाम किया। और कहने लगा : "पट्टमहादेवीओ को आज्ञा के अनुसार इस सभा के उद्देश्यों को आप लोगों के सामने प्रस्तुत करूँगा। हर दृष्टि से इस काम के लिए मैं अनई हूँ। फिर भी पट्टमहादेवीजी ने मुझे इस कार्य पर क्यों नियोजित किया, यह मेरी ही समझ में नहीं आ रहा है। आप सभी जानते हैं कि महासन्निधान बिजय यात्रा पर गये हुए हैं। जब तक वे विजयश्री के साथ लौटेंगे, तब तक इस मन्दिर के निर्माणकार्य को पूरा कर लेना है। पट्टमहादेवीजी का यही उद्देश्य है। छोटे प्रभु उदयादित्यरसजी भी इस समय राजधानी में उपस्थित नहीं हैं। इसलिए उनके कार्य के निर्वहण का दायित्व राजपहल ने मुझे सौंपा है। यहाँ उपस्थित सभी लोगों में मैं सबसे छोटा हूँ। ऐसी स्थिति में इतने बड़े दायित्व को मुझे सौंपने से सहज ही अहंकार उत्पन्न होना सम्भव है। ऐसा अहंकारजनक उत्तरदायित्व सिर पर लेने के बाद सिर झुकाना कैसे होगा? विनीत होकर लक्ष्य को साधने के लिए किस तरह निर्वहण करना पड़ेगा-यह सीख सिखाना उनका ध्येय है। छोटा होने के कारण
और भारी दायित्व के कारण उत्साह से शीघ्रता में कुछ विचार सहज ही मन में उत्पन्न होंगे ही। ऐसे सन्दर्भ में मैं कुछ अनुचित कह भी दूं तो आप लोग उदारता से क्षमा कर देंगे। यही मेरी विनीत प्रार्थना है। मैं कृतकार्य होऊँ तो अपने को कृतार्थ मानूँगा। राजमहल ऐसा हो आशीर्वाद दे–यह मेरा नम्र निवेदन है।'' इतना कहकर वह इस सभा का उद्देश्य कहने लगा-"मैंने पहले ही सूचित किया है
248 :: पट्टमहादेश शान्तला : भाग तीन