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है। उसका अर्थ भी समझ में आ रहा है।" कहते हुए गोज्जिगा से छूटकर चार कदम चट्टला की ओर गया।
___ "अपने से कुछ होता नहीं। तुम्हें तो खाली बातें याद आती हैं। जो याद आयो सो कहकर ही चले जाइए। बाद को न कहने के कारण महीनों तक बात मन में ही रखकर घुलते मत बैठना।" चट्टला बोली।
"भार्या रूपवती शत्रुः ।"
बीच में चट्टला कुछ गुर्रायी- "क्या कहा? मुझे शत्रु कहा? अब पूरा हो गया, मेरे-तुम्हारे बीच का सम्बन्ध । महाराज ने तो अब मुझे बचा लिया, ईश्वर की तरह प्रत्यक्ष आकर मेरी रक्षा की।" कहती हुई दामोदर की ओर कनखियों से देखने लगी।
"अजी. महाराज, मैं इसका घरवाला हूँ। मुझसे अधिक आपको इसकी चाल क्या पता? यह बहुत खटपट करनेवाली औरत है। इस पर विश्वास मत कीजिए। बाद को बहुत पछताना पडेगा।" मायण बोला।
दामोदर हँस पड़ा। ओसा, "तुम मुझे मठ मत पढ़ाओ। अरे गोज्जिगा! इसे पहले गंगराज की धर्मशाला में ले जाओ; सारी चीजें एक बार अच्छी तरह देख लो। अगर पता हो जाय कि यह गुप्तचर नहीं, तो इसे उन चीजों के साथ कावेरी के उस पार पहुंचा दो।"
"अजी, मेरी पत्नी को भी भेज दें तो दोनों निकल जाएँगे।" "क्यों रो?" दामोदर चट्टला की ओर मुड़ा और पूछा।
"महाराज की बात इनकार करने जैसी मूर्खा मैं नहीं हूँ। स्त्री होकर जन्मने के बाद कौन अच्छा कौन बुरा-इतना विवेचन करना क्या मैं नहीं जानती? महाराज ! उनकी बात मत सुनें; पूर्णिमा के दिन जैसा रहेंगे, अमावस्या के दिन जैसा नहीं। उसकी तो बुद्धि बदलती रहती है। मुझसे अधिक उसके बारे में कौन जानता है ? उसके साथ जीवन घसीट-घसीटकर हार गयी हूँ। ऐसा कलमुंहा तो मैंने कहीं . नहीं देखा।
उसकी बात समाप्त होने के पूर्व ही एक दूसरे पहरेदार ने आकर कान में कुछ कहा।"ठीक है, जाओ, हम इन दोनों से निबटकर वहाँ पहुँच जाएँगे। उस प्रतिनिधि से कह दो।" कहकर दामोदर ने उसे भेज दिया। फिर गोज्जिगा से बोला, "अरे, इसे घसीटकर ले जाओ, यहीं एक बार, मेरे सामने इसकी जाँच कर लो। वास्तव में गुप्तचर होगा तो कोई-न-कोई अस्त्र छिपाकर रखा होगा।"
चट्टला जोर से हँस पड़ी। दामोदर ने उसकी ओर देखा। उसने आँखें मटका दी।
मुस्कुराते हुए दामोदर ने पूछा, "क्यों हँस रही है?"
286 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन