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'कटहल काटने के लिए मेरे हाथ में हँसिया हो तब तो यह मेरे पास फटकता नहीं। ऐसा आदमी कहीं अस्त्र भी छिपाकर रख सकेगा?''
"मुझे अपना कर्तव्य ही तो करना है, व्यक्ति के गुण अवगुण नहीं देखना है। अरे गोज्जिगा!" उसकी ओर संकेत किया। उसने मायण की जाँच को। उसके पास कुछ नहीं था।
"महाराज बड़े शंकालु हैं।" चट्टला ने कहा। "तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ नहीं।"
"देखा! अब पता हुआ न मेरा स्वभाव? ये महाराज मुझ पर कितना विश्वास करते हैं। तू नहीं करता। बगल में ही पड़े रहकर मरना चाहता है।"
''अब इस सबके लिए उसे अवसर कहाँ मिलेगा? गोजिगा! उसे घसीट ले जा, और जैसा कहा, करके कावेरी के उस पार छोड़ आ। उत्तर की सीमा पर नहीं!" दामोदर बोला।
"री! कम-से-कम अब तो महाराज से कह दे कि मुझे मत भेजें । तेरी शपथ, मैं छोड़कर कैसे रहूँगा? तेरे लिए कहाँ प्रतीक्षा करता रहूँ? कितने दिन तक प्रतीक्षा करूं? अच्छी सन्तान-यात्रा प्रारम्भ की...हाय भगवान् ! "
"अरे! तुम अपने गाँव जाकर प्रतीक्षा करना। सन्तान प्राप्त कर वह तुमसे आकर मिलेगी।"
"क्या कहा?" मायण गुस्से से भरा-सा गरजा।
"हरो! गोज्जिगा इसे घसीट ले आओ। आओ, नीच कहीं का।" दामोदर भी गरज उठा। गोलिगा उसे घसीट ले गया। तब मायण-चट्टला में आँखोंआँखों में बातें हुई। यह ऐसे चला मानो चट्टसा को छोड़कर जाना नहीं चाहता हो। उसकी आँखें भरी-भरी-सी दिख रही थीं। वह चला गया।
अब वहाँ केवल चट्टला और दामोदर दो ही रह गये। "महाराज! द्वार बन्द कर आऊँ?" चट्टला ने पूछा।
"अभी नहीं। मुझे शीघ्र आने का बुलावा आया है। मैं राजप्रतिनिधि आदियम से मिलकर अँधेरा हो जाने के बाद फिर आऊँगा। ठीक है न?"
"बहुत अच्छा! ऐसी जल्दी का क्या काम है?"
"पता नहीं। और क्या युद्ध की ही बात होगी। मुझे तो कोई चिन्ता नहीं, उन्हें भय है।"
"क्यों?" "तुम्हें क्या करना।" 'हाँ, उसे जानकर मुझे क्या करना है?" "चलँ?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 287