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करेंगे। तब तक यह गुप्तचर बन्दी है। मायण ! यह तुम्हारे ही शिविर में रहे। वास्तविकता किसी को पता न पड़े।" बिट्टिदेव ने कहा।
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कह मायण उसे लेकर अपने शिविर में चला गया। वहाँ जाने
"जो आज्ञा. के बाद मायण ने चट्टला से पूछा, "कैसे छूट पायी ?"
चट्टला ने विस्तार के साथ सब हाल बताया। उसे इस बात से प्रसन्नता हुई कि सब काम जैसा सोचा था वैसे ही हो गया। मायण को चट्टला का कौशल बहुत भला लगा। इसके कारण उसके अन्तरंग में जो अभिलाण पैदा हुई उसे पूर्ण कर लेने की इच्छा से उसकी ओर आगे बढ़ा।
चट्टला ने कहा, "सन्निधान की आज्ञा इतनी जल्दी भूल गये ? मैं शत्रुओं का गुप्तचर हूँ। इसे सतर्कता से सँभालना, ध्यान रखना कि यह कहीं छूट न जाय । इतना मात्र करना है। दूसरी किसी बात के लिए अभी अवकाश नहीं।"
"उन्होंने कहा है कि किसी को सत्य मालूम नहीं होना चाहिए। उसका अर्थ इतना ही कि हमारे इस शिविर में दूसरे किसी को प्रवेश नहीं। इसलिए तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं। बाहर पहरेदारों को सतर्क कर दिया गया है।" "मायण ने कहा ।
'यह आपका विषय है। देखिए, इस युद्ध में सन्निधान के गले में जयमाला जब तक न पड़े तब तक और कुछ नहीं। और फिर सन्निधान किसी भी विषय में समय व्यर्थ करनेवाले नहीं। अगर फिर कहला भेजें ?" चट्टला बोली ।
"मुझे ध्यान ही नहीं। "
" पुरुषों को जब कुछ करने की इच्छा हो जाती है तब कुछ भी नहीं ध्यान रहता। इस विषय में...
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"बस करो। फिर उसी को मत बढ़ाओ । उधर वेलापुरी में क्या हुआ, मालूम है ?"
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"क्या हुआ ?"
'हमारा बल्लू...' "सुखी हैं न?"
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'उसे किस बात की कमी है? सुना कि यह तीन दिन बहुत हठ पकड़े रोता
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रहा। खुद पट्टमहादेवी ने उसे अपनी छाती पर लिटाकर सहलाया, सहज किया । " 'पट्टमहादेवी ने बल्लू को सहलाया समाधान किया यह बड़ी बात नहीं। हठ पकड़कर वह उस दिन रोया, जिस दिन हमें बन्दी बनाया गया था। ममता का यह बन्धन कैसा होता है इसलिए कहा । "
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" फिर हमारा प्रेम भी तो यों ही नहीं है। खरा सोना है।" कहकर उसने अपने पति के कपोल पर चुम्बन जड़ दिया।
296 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
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