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चित्र बनाये हैं वे सब-के-सब ठीक अँचे नहीं। इसलिए काम कुछ जटिल होता जा रहा है। इसके अलावा अब महासन्निधान के स्वागत का भी कार्य सामने है। क्या करें?"
"स्थपतिजी आज रात-भर क्या सोचेंगे सो कल ही पता चलेगा। बाद को विचार करेंगे तो नहीं हो सकेगा?"
"वे एक तरह से स्वाभिमानी हैं। अभी उनके काम को कुछ हल्का बनाना अच्छा होगा।"
"तो माँ, आपने जिन भाव-भंगिमाओं की कल्पना कर ली थी, उन्हीं के चित्र आप ही रूपित कर दें तो...?"
"भंगिमा की कल्पना कर उसके अनुरूप खड़े होना जितना सरल है, उसे चित्रित करना उतना नहीं बिट्टि! यह नहीं कि मैं यह काम कर नहीं सकती। परन्तु अब इस ज्ञान का प्रदर्शन मुर्खता होगी। वह सब ठीक नहीं।'
"एक काम क्यों न करें माँ?..." बिट्टियण्णा कहते-कहते रुक गया। 'बोलो, दुम पर्य हैगवं मिट्टि"
"महासन्निधान के आने के बाद उनसे इस विषय पर परामर्श कर बाद में ही निर्णय कर सकते हैं न?"
"सोचने के लिए समय मिलेगा। फिर भी वह काम उनके पधारने तक हो जाता तो अच्छा होता। चित्र तैयार हो जाएँ तो ये सिद्धहस्त शिल्पी महासन्निधान के पधारने तक बनाकर पूर्ण भी कर लेंगे।"
"सो तो ठीक है। वैसे आपको भाव-भंगी देकर खड़ी हो जाना चाहिए; और स्थपित को उन्हें चित्रित कर लेना चाहिए।"
"वह ठीक नहीं होगा। जैसा तुमने कहा, कल सुबह स्थपतिजी क्या कहेंगे, सो सुनेंगे, फिर विचार करेंगे।" शान्तलदेवी ने कहा और बात समाप्त की।
सुबह स्थपति मन्दिर के कार्य का निरीक्षण करने के बाद अपने कार्य-स्थल पर आये, कि तभी शान्तलदेवी और बिटियण्णा भी वहाँ पहुँच गये। स्थपति उन्हें देख उठने ही वाला था कि उन्होंने कहा, "बैठिए।" स्थपत्ति बैठ गये और उन दोनों के लिए तैयार आसनों पर वे भी जा बैठे। समय न गंवाकर शान्तलदेवी ने पूछा, "स्थपतिजी रात को सोये या चित्र बनाते हुए रतजगा किये बैठे रहे?"
"मैं कुछ करूं या न करूं. सब पट्टमहादेवीजी को पता लग जाता है न?" स्थपत्ति ने कहा।
"यह तो आपकी आँखें ही कह रही हैं,' शान्सलदेवी ने कहा। उन्होंने पट्टमहादेवी की ओर चकित दृष्टि से देखा, कुछ बोले नहीं।
''कितनी नयी कल्पनाएँ सूझी?" पट्टमहादेवी ने पूछा।
308 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन