________________
"यथा गुरु तथा शिष्य । मैं भी अपनी खुजलाहट मिटाने के लिए इन भावभंगिमाओं का अनुकरण करने में लग गया। इसे छोड़ना नहीं चाहिए और थोड़ा-बहुत इसका अभ्यास भी करते रहना चाहिए- यही आज्ञा हुई थी न? इसलिए ही विलम्ब हुआ।
"अब भव्य स्वागत की तैयारी करनी चाहिए। बिहि ! रानी राजलदेवी को तुरन्त समाचार भेजकर उन्हें बुलवा लेना चाहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
"राजलदेवीजी के पास यहाँ से ही पत्र भेज दिया गया है-यह समाचार भी मिला है। वे सीधी यहाँ आएँगी।" बिट्टियण्णा ने कहा।
"तब ठीक है। कल बीमदेव और दूसरे सब अधिकारियों को बुलवाकर सबसे परामर्श करके स्वागत की तैयारी करेंगे।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो शिल्पी-सभा?" "कल सुबह ही स्थपतिजी से बातचीत करेंगे।"
उसी तरह सारी व्यवस्था हुई। स्थपतिजी ने पट्टमहादेवीजी की सलाह पान ली। उसके अनुसार उसी शाम को शिल्पी-सभा बैठी। पट्टमहादेवीजी ने सुझाव प्रस्तुत किया।
शिल्पियों ने सब सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा। दासोज ने कहा, "स्थपति जी ने भव्य मन्दिर की कल्पना की है। उनको कल्पना-शक्ति अद्वितीय है । वे ही चित्र बनाकर दें तो वही हम पत्थरों में उत्कीर्ण करेंगे।" उनके इस कथन में कोई ध्यंग्य नहीं था।
स्थपति ने फिर एक बार विनीत भाव से कहा, "ये सब पृथक्-पृथक् विग्रह हैं। सम्पूर्ण मन्दिर के निर्मित हो जाने पर इन मूर्तियों को एक-एक कर उन उभरे स्तम्भों पर ढालदार छत के नीचे बिठाना होता है। इसलिए निर्दिष्ट प्रमाण के अनुसार आप लोगों में से प्रत्येक दो-दो चित्र कल्पित करें तो पूरे मन्दिर की एकरूपता में कोई कमी नहीं आएगी। आप लोग जानते ही हैं कि नवरंग के कोई दो स्तम्भ एक.. से नहीं हैं। वहाँ वैविध्य के होते हुए भी एकरूपता है न? वैसा ही। आप लोग अपनी कल्पनाओं को मेरी इस मूल कल्पना में सम्मिलित करने का मुझे गौरव प्रदान करें।"
फिर भी शिल्पियों ने माना नहीं। "किसी भी कारण से किसी की कल्पना का चित्र यदि अस्वीकृत हुआ तो वह असन्तोष का बीज बनेगा। इसलिए यह काम नहीं करना चाहिए। स्थपति जो चित्र बनाएँगे उसके अनुसार कार्य करनामात्र हमारा काम है।" यही सभा का निर्णय रहा।
बात जहाँ को तहाँ। कुछ आगे नहीं बढ़ी। सभा का विसर्जन करने के बाद बिट्टियण्णा से बात छेड़ती हुई शान्तलदेवो ने कहा, "देखो बिट्टि, अब स्थपति ने जो
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 307