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के चढ़ाव के कारण एक वैविध्य आने से दीवार को सुन्दरता बढ़ती है।"
"उन स्तम्भों पर इन विग्रहों को चुन दें तो कैसा रहे?" स्थपति ने थोड़ी देर मौन हो सोचा।
"बड़ा सुन्दर होगा। ऐसा विचार करने पर चौबीस पर्याप्त नहीं होंगे। छत्तीस विग्रहों को आवश्यकता पड़ेगी।"
"शेष चित्रों की भी कल्पना कर सकते हैं न?" शान्तलदेवी ने कहा।
"कल्पना के लिए भी एक व्यक्तिगत सीमा होती है। यहाँ संख्यामात्र नहीं. वैविध्य भी होना चाहिए। आकर्षण भी रहना चाहिए, उनमें। जहाँ सम्भव हो क्रियाशीलता के भाव भी होने चाहिए। तभी उनका मूल्य होता है। मेरी सूझ के अनुसार मैंने चित्र बनाये हैं। शेष चित्रों के विषय में सन्निधान दिशानिर्देश दें तो मेरा काम कुछ सुगम हो जाएगा।"
शान्तलदेवी ने बिट्टियण्णा की ओर देखा। उसने ऐसा सिर हिलाया मानो उसे कुछ सूझा ही नहीं। थोड़ी देर बाद शान्तलदेवी ने बताया, "आपके ये चित्र मेरे पास रहें। मैं सोचकर बताने का प्रयास करूंगी। यह समझकर आप निश्चिन्त हो न बैठे। आप भी कुछ नयी कल्पना का प्रयास करें," फिर चित्रों के उस पुलिन्दे को ले लिया।
स्थपति अनुमति लेकर चले गये। बिट्टियण्णा मन्त्रणालय में चला गया।
शान्तलदेवी उन चित्रों के साथ अपने विश्रान्तिगृह में गयीं। एक-एक कर चित्रों को विमर्शात्मक दृष्टि से देखा। उनमें कुछ उन्हें अनावश्यक लगे। मन्दिर को भव्य होने के साथ सुन्दर भी होना चाहिए-इस भावना से उन्होंने अपने मन में कुछ नाट्य भंगिमाओं की कल्पना की। वे कैसी होंगी, यह अपनी आँखों से देखने के उद्देश्य से दर्पण के सामने अपनी कल्पना की उन भाव-भंगिमाओं के अनुसार स्वयं खड़ी होकर उनका परीक्षण करने लगीं।
कुँवर बिट्टियण्णा को राजधानी में महाराज के न रहने के कारण अन्तःपुर में जब चाहे पहुँच जाने की सुविधा थी। वह मन्त्रणालय से सीधा पट्टमहादेवी के विश्राम कक्ष में आया। उसने पट्टमहादेवी को स्थायी-भाव-भंगिमा में विशाल दर्पण के सामने खड़ी देखा। चुपचाप खड़ा हो गया। मौन होकर शान्तलदेवी जिन भाव- भंगिमाओं को बनाती उनका वह भी अनुकरण करने लगा। लगभग आधा प्रहर तक यह अनुकरण-क्रिया चलती रही होगी। तभी अचानक बिट्टियण्णा की भंगिमा का प्रतिबिम्ब दर्पण में शान्तलदेवी को दिखाई पड़ा। उन्होंने मुड़कर देखा।
"नाट्य भाव-भंगिमा के इस काम से तुमको क्या मिलेगा विट्टि ? इससे तुम्हारी भुजाओं की खुजलाहट तो दूर होगी नहीं।'' शान्तलदेवी ने कहा। उनकी ध्वनि में कुछ तिक्तता भी थी। उससे सीधा तो कह नहीं सकती थी। अपनी ही गोद का पला
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 305