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निर्माण में चुनना चाहते हैं। वह उससे अधिक उपयुक्त कार्य है।" बिट्टियण्णा में कहा।
"सुनते हैं कि हमारे छोटे दण्डनायक ने स्त्री के वेश में नाट्य दिखाकर चकित कर दिया था। आप ऐसा ही वेश धारण कर नाट्य दिखाएँ तो हमें भी सुख हो। फिर उसी नाट्यभंगिमा को चित्रित कर, उसी के अनुसार विग्रह तैयार करूँगा।"
"इन मुंछों को क्या करूँ? इससे भी अच्छी नाट्य-भंगिमा मेरी गुरु पट्टमहादेवीजी दे सकेंगी।''
"बिद्री!" शान्तलदेवी मे डाँट-सी पिलायी। सीव दुष्टि से भी देखा।
"बेचारे, लड़कपन है अभी। उन्होंने ऐसा कह दिया, पर मुझे औचित्य का ज्ञान नहीं? सन्निधान से हमें ऐसी बात नहीं करनी चाहिए।" ।
"आपने जो बनाये हैं ये मानवकृत भंगिमाओं से जब श्रेष्ठ हैं तब मेरी या किसी की भंगिमा की आवश्यकता क्या है ? हाँ, अब इनका विचार ही क्यों? आप आज सन्ध्या को चित्र लाइए। अच्छा बिट्टी, अब चलें!" कहकर शान्तलदेवी राजमहल की ओर चल दी। बिट्टियण्णा ने उनका अनुगमन किया।
पष्टमहादेवी के आदेश के अनुसार स्थपति अपने चित्रों के साथ राजमहल में गया। पट्टमहादेवी, बिट्टियण्णा और स्थपति तीनों ने बैठकर उन्हें देखा। शान्तलदेवी ने पूछा, "कुल कितने चित्र बनाये हैं?"
"चौबीस। "इन्हें कहाँ-कहाँ सजाने का विचार है?'' शान्तलदेवी ने पूछा।
"मैंने अभी यह निश्चय नहीं किया कि कहाँ चुनना चाहिए? सन्निधान सूचित करें तो उसके अनुसार इन्हें चुना जा सकता है।"
"सुपूर्ण मन्दिर की कल्पना आपकी है। इसलिए मुझसे अधिक स्पष्ट रूप से आप समझ सकते हैं। है न?" शान्तलदेवी ने कहा।
"मूल कल्पना में यह नहीं था। इसलिए इस बारे में चाहे मैं कहूँ या सन्निधान कहें-दोनों बराबर हैं।" ।
"आपका विचार है कि इतने विग्रह चाहिए। है न?" शासलदेवी ने पूछा।
"ऐसा विचार तो नहीं किया है। इस बारे में जब सोचने लगा तो पहले ऐसा लगा कि शायद इतने होने चाहिए। अगर वे अधिक लगें तो कम कर सकते
"आपने वातायनों के दोनों पार्यों में अर्ध-वर्तुलाकार स्तम्भ ऊपर के स्तरों में चुने हैं न?"
"हाँ। नहीं होते तो सम्पूर्ण दीवार सपाट लगती, खाली-खाली लगती। स्तम्भों
304 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन