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मायण ने उसका आलिंगन किया। इतने में एक पहरेवाले ने बाहर से कहा, "सन्निधान से बुलावा आया है, उस गुप्तचर के साथ अभी वहाँ उपस्थित होना है।" इस सन्देश नै उनमें त्वरा उत्पन्न कर दी। दोनों तुरन्त उठ खड़े हुए।
__ "मैं पहले जाऊँगा। तुम लोग गुप्तचर को सावधानी के साथ ले आओ और सन्निधान के शिविर के बाहर खड़े होओ।" भाय में कहा और चला गया।
पहरेदारों के साथ गुप्तचर चला। जल्दी ही उसे अन्दर बुलवा लिया गया। काफी देर तक विचार-विनिमय हुआ। इसी के फलस्वरूप दामोदर के बन्दी होने का समाचार समूचे तलकाडु के इस छोर से उस छोर तक फैल गया। इसी दृष्टि से दूसरे ही दिन दामोदर के लिबास को सन्धिविग्रहिक के द्वारा आदियम के पास भेजकर सन्देश भी भेजा गया कि कम-से-कम हमारे प्रदेश को अब छोड़कर चले जाएँ। तब तक दामोदर का अता-पता नहीं लगा था। फिर भी आदियम झुका नहीं। उसने कहला भेजा कि एक व्यक्ति के बन्दी हो जाने से चोलों का बल कम नहीं हो जाता। यदि. शक्ति हो तो तलवार की धार पर अपनी जगह ले सकते हो।
युद्ध आरम्भ हो गया। दामोदर की इस हालत पर आदियम का क्रोध दुगुना हो गया। जोरों से युद्ध चला। चट्टला ने जो समाचार दिये थे उसके अनुरूप चोलों का संहार करने के लिए गंगराज ने नयी व्यूह रचना की। इस तरह पोय्सलों को विजय पाने में देर नहीं लगी। चोल सैनिकों के रक्त से रंगकर विकराल रक्तजिह्म महाकालीसा रूप धर, कावेरी नदी श्रीरंग की और बह चली।।
आदियम और दामोदर जान बचाकर भागे। गंगराज ने दामोदर का पीछा किया। परन्तु वह दक्षिण की ओर के किसी घने जंगल में जा छिपा। यह समाचार मिलते ही नरसिंह वर्मा जहाँ था, वहीं से भाग निकला। आदियम का कोई पता नहीं लगा। इस तरह गंगवेशियों से अपहत गंगवाड़ी प्रदेश को पोय्सलों ने चोलों के हाथ से छीन लिया।
यद्यपि इस युद्ध का नेतृत्व गंगराज ने किया था फिर भी युद्धरंग की विचारगोष्ठी ने निर्णय किया कि 'तलकाडुगोंड' नामक विरुदावली महाराज विट्टिदेव को ही धारण करनी चाहिए।
इस विजय-प्राप्ति के उपलक्ष्य में तुरन्त वैगेश्वर महादेव और मनोन्माणी देवी की पूजा-अर्चा कराने की सलाह पुनीसमय्या ने दी। "इस विजय के सन्दर्भ में सन्निधान यहाँ एक नारायण-मन्दिर का निर्माण करेंगे तो वह कीर्तिदायक होगा'"बम्मलदेवी ने सलाह दी।
मन्दिर के निर्माण के लिए स्थान चुनकर बेलापुरी से कुछ शिल्पियों को भेजने की बात भी तय हो गयी।
इसके साथ यहाँ के काम-काज की व्यवस्था कर उसके अनुसार चाल करने
पट्टमहादेवी शान्तला : 'पाग तीन :: 297