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के उतार-चढ़ावों के साथ सजाया गया था। इस तरह छत तक मन्दिर बनकर तैयार हो गया था।
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एक दिन पट्टमहादेवी शान्तलदेवी, ब्रिट्टियण्णा और स्थपति लगभग पूर्ण हो गये मन्दिर के चारों ओर, रेखांकन हाथ में ले पूरा निरीक्षण कर महाद्वार के पास आ खड़े हो गये ह 'महाद्वार के ऊपर छत तक इतना ही चौड़ा राज सभा का एक शिल्प चित्र के निर्माण की भी इच्छा है।" शान्तलदेवी ने कहा, "सन्निधान के लौटने के बाद उनसे एक बार पूछकर ही वह काम करना अच्छा होगा।"
" जो आज्ञा !" स्थपति ने कहा ।
ब्रिट्टियण्णा से शान्तलदेवी ने पूछा, "तुमने मन्दिर के रेखाचित्र को तो देखा है; अब जो मन्दिर बनकर खड़ा है वह उस चित्र के ही अनुसार है ?" "वैसा ही है। परन्तु..." बिट्टियण्णा रुक गया।
स्थपति ने पूछा, "कहीं कुछ अनुरूप नहीं है क्या ?"
" इस रेखाचित्र से मेरे मन में यह कल्पना नहीं आयी थी कि इस मन्दिर की ऊँचाई कितनी होगी। परन्तु अब तक जो निर्मित है उसे नीचे से ऊपर तक देखते जायें तो लगता है कि आँखों को तृप्ति मिल गयी है। किन्तु ऊपर चढ़ते चढ़ते चपटा लगता हैं। नीचे आनन्द देनेवाले उतार-चढ़ाव ऊपर नहीं हैं।" बिट्टियण्णा बोला।
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'मुझे भी यही लगा। उसके लिए अलग से कुछ आकर्षण भंगिमाओं के विग्रह बनाकर एक तरफ से जहाँ-तहाँ प्रस्तुत करने की योजना है। और उसके लिए कुछ चित्र भी मैंने तैयार किये हैं।" स्थपति ने कहा ।
'अब तक यह बात बतायी नहीं न?" शान्तलदेखी ने पूछा।
"उचित अवसर की प्रतीक्षा थी। इस मन्दिर का समग्र चित्र एकबारगी मेरे मन में उत्पन्न नहीं हुआ। जब जो सूझा उसको तभी बनाकर रखना एक सनक है। मुझे अनायास ही इस काम में लगना पड़ा। उसी में थोड़ा-सा समय निकालकर इसके लिए एक रूप दिया था। मन्दिर की दीवारों के बनते समय ही मुझे महसूस हुआ कि ऊपर खाली-खाली सा लगता है। काम हाथ में लेने के बाद ऊपर तक दृष्टि डालने पर भी आकर्षण एवं वैविध्य ज्यों-का-जयों बना रहे, इस तरह उन विग्रहों को सजा देने का निश्चय करके अवकाश के समय चित्रांकन का कार्य भी करने लगा था। वह सचमुच अच्छा ही हुआ। जैसा मुझे लगा, उसी तरह दूसरों को भी लगता हो तो वह अपूर्ण ही है, यही मानना होगा।" स्थपति ने कहा ।
"उन चित्रों को दिखाएँगे आप ?" शान्तलदेवी ने कहा । " प्रस्तुत करूँगा।"
पट्टमहादेत्री शान्तला भाग तीन 301