________________
"अजी, आज ही होना चाहिए? देखिए मैंने तो मान लिया है। फिर भी आप पराये ही तो हैं। इसलिए कुछ संकोच लगता है। कल तक प्रतीक्षा करें तो...।"
"देखो, मुझसे यह नहीं होगा। तुम्हारे प्राण, मान-मर्यादा सबकुछ अब मेरे हाथ है। मेरा कहा मानो तो कुशल है। वह काम प्रसन्नता से होना चाहिए, बलपूर्वक नहीं।" कहकर उसकी भुजा पर हाथ रखा।
44
"अच्छा, रुकिए जरा !"
L
"क्या हूँ ?"
" दीपक की रोशनी में यह सब मेरे वश का नहीं।"
“तो दीया बुझा दूँ?"
"हाँ ?"
"बुझा दें तो फिर जलाएँगे कैसे ?"
"न, न, मुझसे प्रकाश में सम्भव नहीं ।"
"कुछ स्त्रियाँ प्रकाश से डरती क्यों हैं?"
" वह पुरुषों को कैसे जान पड़ेगा? वह एक तरह की लाज है।"
44
'भाड़ में जाओ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा ही सही।"
EL
'आप ही बुझाएँगे या मैं बुझा दूँ!"
24
'जैसी इच्छा हो।"
"
'हमारे इस प्रथम समागम की स्मृति के लिए ?"
11
'ओह! कुछ नहीं लाया न?"
'अँगूठी तो हैं न?"
+4
'वह अधिकार मुद्रा है, किसी को नहीं दी जा सकती।"
"तो पहला समागम...
EL
"
14
'अब क्या करूँ बताओ ? मैंने सोचा ही नहीं। कल तुमको एक सुन्दर कण्ठी दूँगा । स्वीकार ?"
" अभी होती तो कितनी खुशी होती!"
+1
'लेकिन अब क्या करूँ ?"
"अच्छा, जाने दीजिए। मैं ही हार मान लूँगी। हार मानना ही तो स्त्री का काम
"यह सब मुझे नहीं पता।"
"ठीक है, छोड़िए। अब चर्चा क्यों ? आप अपने ही हठ को साधना चाहें तो
मैं क्या कर सकूँगी। इस लिबास को ऐसा ही रहना होगा ? इससे बाधा होगी ?" "हाँ, यह बात तो ठीक है। इसे उतार दूँ तो फिर अँधेरे में पहलूँगा कैसे ?"
292 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
|