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"वह भी ठीक है। यह भी ठीक है?" "यह भी ठीक है ? इसका तात्पर्य ?11
"यही, आज मैं और तुम इस जगह एकान्त में दामोदर की दृष्टि में कामवासना स्पष्ट झलक रही थी। चट्टला हैंस पड़ी। दामोदर ने उसका हाथ पकड़ा।
"अभी लोग जग रहे हैं।" चट्टला ने कहा। "द्वार तो बन्द है न?" "सब पर इसने अधीर ज्यों हैं।" "तो तुमको...?" "कहो, रुक क्यों गये?" "मेरा नम्बर कितना?" "वही दुष्ट पहला; अब तुम..." "तो कहा कि सभी पुरुष?"
"वह भी ऐसा ही अधीर दिख रहा है। आप भी ऐसे ही लगे। इसीलिए लगा कि सब ऐसे ही होंगे।"
"देखो, मझे और भी बहुत से काम है। इसलिए..." "बाद को यहाँ मुझ अकेली को पड़े रहना होगा?"
"प्रसंग हो ऐसा है। क्या करूं? मुझे तो रात-भर तुम्हारे ही साथ रहने की अभिलाषा है।"
हाथ छुड़ाकर, "ऐसा हो तो अभी चले जाइए." कहती हुई चट्टला ने कुछ क्रोध-सा प्रकट किया।
"ओह! तुम तो गवार-सी लगती हो। अवसर-कुअवसर का ज्ञान नहीं। देखो! तुमको मेरे बारे में कुछ भी मालूम नहीं। अगर वास्तव में तुम मुझसे प्रेम करती हो-यह लगने पर तुम्हारे लिए अलग घर ही लेकर वहाँ बसाऊँगा।''
"तो अभी भी सन्देह है?" "विश्वास जब तक न हो तब तक तो सन्देह ही है।"
"तो जब तक सन्देह है तब तक मैं भी अपना हृदय न दूंगी। अब जाइए। मैं भाग तो नहीं सकती। आप चैन से आइए, पूरे प्रेमपूर्ण हृदय से फिर आपकी हूँगी।"
"अगर तुम ऐसी शर्त रखोगी तो युद्ध पूरा होने तक अवकाश ही नहीं मिल सकेगा।"
"युद्ध क्या दो दिन होगा, या तीन दिन?" दामोदर हैंस पड़ा। "क्यों?" "तुम भी कितनी मूर्ख हो? तुमने और तुम्हारे उस नपुंसक पति ने कहा कि
290 :: पट्टमहादेवी शान्सला : भाग तीन