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"यदि आप आये नहीं तो?"
"सो तो सम्भव ही नहीं। मैंने भी निर्णय कर लिया है। तुमने भी सोच लिया है। दोनों एक से। ऐसी स्थिति में छूटना ही नहीं चाहिए।"
"ऐसा हो तो बहुत प्रतीक्षा नहीं कराएँ।..." चट्टला ने कटाक्ष किया।
"तुप स्वादिष्ट भोजन करके पान रचाती बैठी रहो। मैं आ जाऊँगा शीघ्र ही।" कहकर दामोदर चला गया।
चट्टला चिन्तामग्न बैठी रही। हमारी योजना ठीक बैठ गयी लगती है। अकेली को छोड़ जाने की इच्छा न होने पर भी मायण अन्त में मानकर चला गया. यह अच्छा हुआ। यही उसकी धारणा रही।
गोजिगा के साथ मायण गया सही, अब वह होगा कहाँ ? क्या करता होगा? जैसा सोचा था उस तरह सब काम करना उससे हो सकेगा? अँधेरा होने के बाद दामोदर आएगा। उससे सायना कैसे होगा? कौन-सा कदम उठाने पर काम सफल हो सकता है-आदि-आदि बातें सोचती हुई बैठी रहीं।
उसे भोजन के लिए बुलावा आया। भोजन करके आयी और पान खाने बैठ
गयी।
बहुत देर बाद दामोदर आया। चट्टला ने पूछा, "मुझे भय था कि आप आएँगे या नहीं।"
'डर क्यों ?" दामोदर ने पूछा।
"तुम पुरुषों को कैसे मालूम पड़ेगा कि अकेली स्त्री को क्यों भय होता है? मेरा पति कम-से-कम साथ होता तो कुछ तो धीरज होता। आपके नीचे काम करनेवाला कोई आ जाता तो अकेली स्त्री मैं क्या कर सकती थी। देखिए! भविष्य में मुझ अकेली को इस तरह छोड़कर मत जाइए।" चट्टला ने कहा।
दामोदर हँस पड़ा। बोला, "यहाँ, मैं जिस औरत को चाह की दृष्टि से देखता हूँ, उसको ओर कोई दूसरा देखने का साहस भी नहीं कर सकता। इसलिए तुम मत्त डरो। आज का भोजन कैसा रहा?" दामोदर ने पूछा। कहते-कहते वह सरककर उसकी बगल में जा बैठा।
"बहुत ही उत्तम, राजमहल के भोजन जैसा।" चट्टला बोली।
"तुपको राजमहल के भोजन की रुचि का पता कैसे मालूम है?" दामोदर में शंका-भरी दृष्टि से उसे देखा।
चट्टला ने उसको शंका को पहचान लिया। "हमें ऐसा सौभाग्य कहाँ? ऐसा भोजन मैंने जिन्दगी-भर में नहीं खाया था। इसलिए मैंने सोचा कि राजमहल का भोजन शायद ऐसा ही होगा। आप सब लोग प्रतिदिन ऐसा खाना खाते हैं ?'उसकी ओर देखती हुई चट्टला ने पूछा।
28a :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन