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परन्तु संशय हो जाने पर किसी भेदभाव के बिना छोटे-बड़े सबका जीवन कीचड़ का कुआँ बन जाता है - यह उसके मन में निश्चित हो गया। भावोद्वेग स्थायी हो जाने पर वह सबसे एक ही तरह का काम करा देता है- यह प्रत्यक्ष हो गया । फिर भी इनके बीच निर्विकार, खुले मन निर्लिप्त और आवेग रहित स्थिरचित्त पट्टमहादेवीजी की रीति और उस रीति की साधना द्वारा सिद्ध करनेवाली स्थिति को देखकर वह चकित हो गया। इस तरह रहना उनके लिए कैसे सम्भव हो सका- वह यह सोचने लगा। शुद्ध मन और उत्तम संस्कार- ये दो ही उसे प्रधान कारण प्रतीत हुए।
वास्तव में चट्टला दुनिया की दृष्टि में शीलभ्रष्टा है। उसका जीवन अच्छा और सुन्दर बनना असम्भव ही था। ऐसी स्थिति में भी उसके जीवन को सुखमय और प्रेमपूर्ण बनाने में पट्टमहादेवी ने जिस भूमिका का निर्वाह किया वह बहुत ही प्रशंसनीय लगा। साथ ही अपने जीवन को राम कहानी उसके मनःपटल पर अंकित होती चली। उस भोर के सपने से लेकर अपने गृहत्याग के समय तक की एक के बाद एक सारी घटनाएँ उससे अन्तश्चक्षुओं के सामने खुल-सी गयीं। स्मृति जैसेजैसे तीव्र होती जाती वे सारी पुरानी घटनाएँ जिस क्रम से घटीं और उसकी जो प्रतिक्रयाएँ हुई वह ज्यों-का-त्यों मन में दुहरा-सी लगी । न न खुले दिल की चट्टला और यहाँ का कोई सम्बन्ध ही नहीं। एक निःसहाय निर्मलता, दूसरी - नियोजित कु प्रवृत्ति। यह खरा सोना और दूसरी राख बनो लकड़ी। एक त्याग की ज्योति, दूसरी दुनिया को अँधेरे में डुबा देनेवाला सघन धुआँ ! यों उसका मन दो व्यक्तियों की तुलना में उलझता गया। इसी चिन्ता में लीन वह कब सो गया, पता नहीं।
पोसलों का तमिल जाननेवाला गुप्तचर बड़ी कुशलता से खिसका और अपनी सेना के शिविर में पहुँचा। उसी से चट्टला-मायण के बन्दी होने की सूचना मिली। नहीं तो सूचना मिलना भी कठिन होता। राजमुद्रांकित पत्र के बिना कोई भी लुक-छिपकर तलकाडु से बाहर नहीं निकल सकता था। यों चट्टला-मायण एक ओर व्यक्त रूप से बन्दी हुए तो शेष चर अव्यक्त ही बन्दियों की तरह तलकाडु में रहे। जो पकड़े नहीं गये वे किस्सी तरह छूटकर आ सकते थे, परन्तु चट्टला मायण आ नहीं सकते थे। इसलिए गंगराज आदि से विचार विनिमय कर ब्रिट्टिदेव ने
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दोन : 281