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"शिवगंगा में ही न? राजाधिराज कुलोत्तुंग चोल के भगा देने पर वह नामधारी संन्यासी कावेरी की ओर चल दिया। वहाँ के राजा ने उन्हें मान्यता दे दी, आदि।" चट्टला ने कहा।
"हाँ, हाँ, अब याद आया। उस राजा की बेटी को, सुनते हैं कि कोई विचित्र रोग हुआ था। उस बूढ़े संन्यासी ने अच्छा कर दिया था। इसलिए उस राजा ने उस संन्यासी को धन से तोल दिया। सुना कि वह राजा तब से उन नामधारी संन्यासी का चेला बन गया...यही सब हमने सुना था।" मायण ने कहा।
“यह सब ढोंग है। अपने मत को प्रचारित करने का ढंग है। तुम क्या जानो उस बूढ़े के बारे में। स्वयं उसकी पत्नी ने ही उसका आदर नहीं किया तो सोचो वह कैसा आदमी हो सकता है? हमारे प्रभु बड़े उदार हैं; धर्मभीरु हैं। उन्हें असन्तुष्ट कर दिया। तुम ही सोच देखो वह कैसा आदमी होगा और उसके काम कैसे होंगे। मुझे लगता है, हमसे बदला लेने के विचार से वह घुमक्कड़ बिट्टिगा पर जादू चलाकर, उसे नचा रहा है। छोड़ो, अब सब झमेला नष्ट हुआ जाता है।" दामोदर ने कहा।
"तो हमें यहाँ कोई डर नहीं है न?" चट्टला ने पूछा।
"कुछ भी डर नहीं। आप लोग तो खुश होंगे। शिवभक्त आप लोग देखेंगे कि हम शिव-विरोधियों को किस तरह मिट्टी में मिलाते हैं। कहाँ ठहरे हैं आप लोग?'। दामोदर ने पूछा।
"अभी कहाँ? शहर में आये हैं। आप ही बताएँ यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला कहाँ है? अभी तक तो जहाँ दिखा वहीं ठहर गये।" मायण ने कहा।
"सुविधा चाहें तो बताएँ!" दामोदर ने कहा।
"यात्रार्थी होकर हम मोक्षमार्ग की खोज में ही तो आये हैं। यह मार्ग ही क्लिष्ट मार्ग है यह हमें मालूम है। ऐसी स्थिति में सुविधा की खोज में बैठे रहना उचित नहीं। हम तो किसी को कष्ट नहीं देना चाहते।" चट्टला ने कहा।
आदियम, चट्टला की बात सुनकर हँस पड़ा। "हँसते क्यों हैं?'' चट्टला ने पूछा।
"तुम लोगों को देखने से तो हमें विश्वास नहीं होता कि तुम लोग यात्रार्थी हो और मुक्तिमार्ग की खोज में निकले हो। इसलिए हैंसी आ गयी।"
"क्यों, विश्वास क्यों नहीं होता?" चट्टला ने पूछा।
"इनका भस्म, तुम्हारा यह हल्दी, रोली का प्रदर्शन- इतना ही यात्रियों का संकेत नहीं । मुक्ति-मार्ग की खोज करने के लिए एक उम्र होती है। आप दो ही आये हैं, इसे देखने पर प्रतीत होता है कि अभी आपके सन्तान नहीं हुई है। इस यौवन में यात्रा...मुक्ति ...हमें कौतुक-सा लगता है। है न?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 265