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"हाँ, तो मैं भूल ही गयी थीं। फिर भूल हो गयी। आपके बारे में इतना सब पूछना ही नहीं चाहिए था। अपनी निजी बात को छोड़ दीजिए। परन्तु बल्लू के बारे में आपके मन में आशंका क्यों हुई ? उसे तो आपने कल ही देखा, इसके पहले नहीं। आप खाप को भी नहीं जाते। यह समय क्यों ?"
"कल सन्निधान ने जो बातें कहीं. उनका शायद मेरे मन पर कुछ प्रभाव पड़ा होगा।"
"ऐसी कोई बात मैंने कही हो--स्मरण नहीं।"
" दण्डनायक ने माता-पिता को जन्म से ही खो दिया। उनका पालन-पोषण कर आपने ही सँभाला। बल्लू के माँ-बाप युद्ध क्षेत्र में गये हैं। उसे भी आपको सँभालना होगा। इसके साथ आपने यह भी कहा कि बल्लू के माँ-बाप की कहानी बहुत चित्ताकर्षक है। वह आकर्षण संशय का पूरक हैं; शायद इसी का मुझ पर कुछ प्रभाव हुआ हो!"
" आपको निश्चित रूप से कुछ ज्ञान न होने पर भी उस बच्चे के बारे में आपके मन में आशंका हुई, इससे लगता है कि आपका हृदय बहुत कोमल है। " शिल्पी इसे सुनकर हँस पड़ा।
"क्यों? मैंने ऐसी क्या बात कही जिससे आप हँसे!" शान्तलदेवी ने पूछा । "कोमल हृदय कहा न ? इससे हँसी आ गयी। मेरा हृदय नहीं, वह कसाई का हथियार है, ऐसा कहर्ती तो ठीक होता।"
इस बार शान्तलदेवी को हँसी आ गयी। शिल्पी ने प्रश्नमयी दृष्टि से शान्तलदेवी की ओर देखा ।
कुछ क्षणों के बाद शान्तलदेवी ने कहा, "दुनिया में अपने-आपको न समझने वाले अनेक लोग हैं। शायद ऐसे लोगों में आप भी एक हैं। इसीलिए आप अपने को कसाई कहते हैं। जो कसाई होता है वह कभी अपने काम पर पछताएगा ? पछतानेवाला कभी कसाई बन सकता है? अपने ऊपर, अपने आप दोष न लगाइए। कलाकार कसाई नहीं बन सकता। लोलुप और मदान्ध होते हैं कसाई ।"
शिल्पी कुछ नहीं बोला ।
"क्यों? मेरी बात सही नहीं जँची ?" शान्तलदेवी ने पूछा।
'सन्निधान का लक्ष्य किस ओर है, यह समझ में नहीं आ रहा है।"
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" मेरा कोई लक्ष्य नहीं। यह केवल दुनिया को देखने पर उत्पन्न अनुभव मात्र | आप दुनिया से दूर रहकर इस अनुभव को खोना चाहते हैं। जीवन वासाव में सुन्दर है। सुन्दर बनाना हमारे हाथ में है। उसे भयंकर नरक बना लेना भी हमारे ही हाथ में है। जो अनुभवी होता है, वह उसे सुन्दर बनाने का यत्न करता हैं। अनुभवहीन
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 277