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होगा। आप इसके लिए अन्यथा न समझें।"
"राजकार्य प्रथम है। आप हो आइए। शुभं भूयात्।" बिट्टियण्णा जल्दी-जल्दी वहाँ से चल पड़ा।
घण्टी की तिति ने बता दिया कि पटमहादेवीजी आ रही हैं। शिल्पी ने सोचा न था कि इतनी जल्दी आ जाएंगी। वह अप्रतिभ-सा उठ खड़ा हुआ कपड़े सँभालने लगा।
शान्तलदेवी आते ही एक आसन पर बैठ गयीं । उनको बैठे देख शिल्पी भी बैठ गया।
"कुँवर बिट्टियण्णा ने कहा कि आप किसी चिन्ता में मग्न बैंठे थे। कारण जानने की इच्छा होने पर भी आ न पायी।"
"बच्चा स्वस्थ है न?"
शान्तलदेवी ने चकित नेत्रों से देख शिल्पी से पूछा, "क्यों? आपको ऐसा क्यों लगा?"
"मेरे मन में कोई निर्दिष्ट भावना उत्पन्न नहीं हुई। फिर भी एक अव्यक्त आशंका मन में उठी। वह ठीक है या नहीं इसकी विवेचना किये बिना ही चला आया। भूल हुई हो तो क्षमा करें।"
__ "चाहे किसी भी कारण से आप यहाँ तक चले आये हों, आपका आना तो हुआ। साथ ही, उस बच्चे के बारे में आपके मन में जो आशंका हुई, वह एक शुभसूचक है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"मन में आशंका का होना शुभसूचक है?"
"हाँ, 'विषादपि अमृतं ग्राह्य-ऐसी उक्ति है। उसका अन्वय आपके मन में उस बच्चे के बारे में उत्पन्न भय से है. क्षीरसागर को मथने के समय उत्पन्न विष के समान। यह उस दिन नीलकण्ठ भगवान के कण्ठ में रहा; आज वह दूसरा रूप धारण कर कहीं छटपटा रहा है। परन्तु इस आतंक के पीछे आपके हृदय के अन्दर एक सुप्त ममता है, जिसमें पुत्र-वात्सल्य की भावना की कोंपल लगी है। वह कोंपल आगे चलकर फूले-खिलेगी। चिन्ता मत कीजिए!" शान्तलदेवी ने कहा।
शिल्पी ने एक बार अपना सिर धुन लिया और कहा, "नहीं, ऐसा ममता के लिए अवसर ही नहीं। यदि मेरा कभी कोई पुत्र होता तभी न ममता उत्पन्न होने की बात आती?"
"आगे होगा नहीं-ऐसा कोई नियम है?" "हाँ!'' "सो कैसे?" "कृपया इस विषय पर बल न दें।"
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276 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन