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कैसे कर सकँगा? ऐसा नहीं हो सकता--यों विचार करता हुआ वह राजमहल की ओर चलने लगा।
अपनी इच्छा से पहली बार इस राजमहल में आया था। अन्य सभी प्रसंगों में आह्वानित होकर या पट्टमहादेवीजी के साथ वह राजमहल आया था। राजमहल के दास-दासी और प्रहरी आदि सब इससे परिचित हो गये थे। राजमहल के प्रधान महाद्वार पर पहुँचा ही था कि कुँवर बिट्टियण्णव वहाँ से बाहर निकल रहा था। शिल्ली हो देखकर उसने पूरला "का सन्निशान ने मना भेजा था?"
"नहीं, मैं स्वयं, समय हो. तो मिलने की इच्छा से आया हूँ। आप सुबह..."
"हाँ, आया था। आप किसी गहरी चिन्ता में डूबे थे। इस चिन्तन के फलस्वरूप कुछ नयी सृष्टि हो सकती हो तो उसमें आधा न पड़े, यही सोचकर मैं चुपचाप चला आया। आपसे किसने कहा?" 'बिट्टियग्णा ने पूछा।
"सेवक ने। दण्डनायकजी आये और मैंने ध्यान नहीं दिया। इसके लिए क्षमाप्रार्थी है।"
"इतनी बड़ी बात क्यों? कुछ भूल हो गयी हो तब न इस तरह के विचार मन में आते हैं ? इसे रहने दीजिए। सन्निधान के पास क्या कोई आवश्यक काम
था?11
- "इसका उत्तर देना कठिन है। पता नहीं क्यों आज मेरा मन, मेरे वश में नहीं
है। रोज की तरह आज सन्निधान भी उधर नहीं पधारों। कल शाम को बच्चे ने जो हठ पकड़ा उससे मेरे मन में एक अव्यक्त पीड़ा पैदा हो गयी। सन्निधान का दर्शन कर यह जानने आया कि सब ठीक है।"
"आपका मन आपके वश में न होना और राजमहल में हुई बात, इनका परस्पर क्या सम्बन्ध, शिल्पीजी?"
"मैं ईश्वर नहीं; अपने मन के भाव को मैंने स्पष्ट किया है। सन्निधान के दर्शन में कोई आपत्ति है क्या?"
बिट्टियण्णा ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। दो-चार क्षण के बाद बोला, "आइए, यही मुखमण्डप में बैठे रहिए। मैं अभी आया।" कहकर वह अन्दर गया। शिल्पी मुखमण्डप में आकर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद बिट्टियण्णा आया और बोला, "सन्निधान भोजन करने निकली हैं। लौटकर यहीं आएँगी। तब तक समय है न?"
"वे समय दे सकी यही परम सौभाग्य । भोजन कर आने की बात कही, वही मेरे लिए बहुत है। आपका भोजन...?" शिल्पी ने कहा।
"आज देरी से करूँगा। मुझे कुछ दूसरा काम है। दण्डनायक बोप्पदेवजी के साथ राजकार्य पर कुछ विचार-विनिमय करना है। इसलिए आपको अकेले बैठे रहना
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 275