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"अर्थात् ?" "प्रश्न नहीं। कुछ विमर्श तो हो ही सकता है?" "* केवल मक श्रोता ली. "
"वही सही। मुझे विश्वास नहीं होता कि हरीशजी के मन में आपके प्रति सद्भावना थी। क्योंकि मैंने सारी बात खुले मन से बता दी है। कुछ छिपा नहीं रखा। आप भी तो यहाँ स्पर्धा होकर नहीं आये। कला का विकास करने के लिए उन्हें एक स्वर्ण-अवसर मिला था। परन्तु आप जानते हैं कि उन्होंने ऐसे अच्छे अवसर का उपयोग क्यों नहीं किया? असूया के कारण। अकारण असूया । जहाँ आवश्यक न हो यहाँ संशय। जहाँ कुछ नहीं वहाँ पूर्व नियोजित था-ऐसी भावना। इससे ही असन्तोष का जन्म हुआ। उसके बाद निराशा, क्रोध, यों एक के बाद एक भावों ने बढ़कर मन को ग्रस लिया। इसी ग्रहण का फल था उनका व्यवहार।" ___"अनेक बुजुर्गों और कई विरुद-भूषित शिल्पकलाविदों को उनके नेतृत्व में काम करने के लिए नियोजित कर इस अल्पवय में उन्हें इतना बड़ा गौरव दिया था।"
"आप मौन श्रोता रहे, अच्छा हुआ। हमारे राजमहल में सदा से गुण, और प्रतिभा को ही मान्यता मिलती रही है। आयु, वंश, स्थान-यह सब गौण हैं। इसलिए उन्हें मान्यता प्राप्त हुई थी। परन्तु उन्होंने उसका सदुपयोग नहीं किया। इतना ही नहीं, आप पर ही शंका कर बैठे।"
"मैंने कौन-सी गलती की?"
"उसका उनसे कोई सरोकार ही नहीं। उस समय उन्हें कुछ शंका हो गयी। जैसा निश्चय कर लिया फिर वैसा ही बर्ताव। ऐसे लोगों को कैसे ठीक कर सकते हैं, आप ही कहिए।"
"मुझ पर शंका की तो वह अन्याय है। मैंने ऐसा नहीं समझा था।"
"आप पर शंका करनेवाले आपसे पूछकर शंका करते हैं? नहीं; आपकी बात पर विश्वास करेंगे? कुल मिलाकर शंका तो हो गयी, किसी भी तरह हो। एक बार शंकाग्रस्त हो जाएँ तो छुटकारा नहीं। शंका के कारण कैसी-कैसी दुर्घटनाएँ होती जाती हैं-इसका अनुभव राजमहल को पर्याप्त है।"
"ऐसा है ? राजमहल में भी ऐसी घटनाओं के होने की सम्भावना हो सकती
हैं?"
"राजमहल में रहनेवाले भी तो मनुष्य ही हैं? उनमें भी राग-द्वेष आदि होंगे न?"
"ब्योरा जब तक न जान, तब तक विश्वास नहीं कर सकूँगा। विशेषकर जिसे सन्निधान का अच्छा परिचय हो गया है, वह विश्वास कर ही नहीं सकता।"
270 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन