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हैं। केवल लक्ष्य के पहलू नहीं होते। मैंने अपने जीवन के लक्ष्य को भी छोड़ रखा था। अब वह अंकुरित हुआ है। इतना नहीं, पोय्सलों की उदारता के कारण लक्ष्य की ओर अग्रसर होने से वह फलदायक होगा - यही सन्तोष है।"
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'कटुता में मीठेपन का दुःख में सन्तोष का स्वाद लेना चाहिए। ऐसे ही व्यक्ति निष्काम कर्मयोगी होते होंगे।"
" वह सब महात्माओं की बातें हैं। हम साधारण मनुष्य हैं। छोटी बातों को लेकर भी दुःखी होते रहते हैं। ऐसी हालत में कटुता में माधुर्य कैसे ग्रहण कर सकते हैं ?"
"महात्मा भी तो मानव ही होते हैं। अपनी साधना के द्वारा के उस कीर्ति के मात्र बनते हैं। उस तरह की साधना करने का अधिकार सबको है। साधना करके सिद्धि भी प्राप्त कर सकते हैं।"
"भुझ जैसे-से तो यह नहीं होगा।"
"ऐसा मत कहें। आपसे भी यह साधना हो सकती है। आपमें वह प्रवृत्ति यदि न होती तो आप यह नहीं कहते कि अपने रेखा - चित्र के स्थपति ओडेयगिरि के हरीशजी बने रहें।"
" वह मेरा त्यागी मनोभाव नहीं। वह मेरे स्वयं के जीवन पर की असह्य भावना का एक अंग है। इतना ही...।"
"तो हरीश मान जाते तो आपको बुरा लगता ?"
"मुझे न बुरा लगता, न अच्छा हो।" शिल्पी ने कहा।
"परन्तु उन्हें वह ठीक नहीं लगा। कटु लगा। जो प्रसन्नता प्राप्त हुई थी, उसे छोड़कर, अनावश्यक विचारों में फँसकर वे कुछ उद्विग्न हो गये। हानि उनकी हुई। इसी का हमें दुःख है । " शान्तलदेवी बोलीं ।
"उन्होंने व्यग्रता की। उनकी आयु भी वैसी हैं। क्या कर सकते हैं ? बे मान लेते तब भी मैं श्रद्धा से इसी तरह अपना काम करता।" शिल्पी ने कहा । " अपनी बात रहने दीजिए। हरीशजी की बात उठी तो आपसे एक प्रश्न पूछने का मन हो रहा है। पूछ सकती हूँ?" शान्तलदेवी ने कहा ।
शिल्पी ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। एक बार शान्तलदेवी की ओर देखा, फिर अन्यत्र कहीं देखने लगा ।
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'आपकी इच्छा नहीं हो तो जाने दीजिए।” शान्तलदेवी ने कहा ।
"कुछ नहीं, दूसरों की बातों से हमें क्या ?"
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'दूसरों पर टीका-टिप्पणी कोई ठीक बात होगी ?"
" एक-न- एक तरह की टीका-टिप्पणी तो होगी ही। इसलिए...
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'आपका दृष्टिकोण और है, परन्तु मेरा कुछ और। "
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन 269