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अन्तरात्मा को कष्ट न दें तो ठीक। क्योंजी, ठूट की तरह सर झुकाये खड़े हो? स्त्री होकर मैं धीरज के साथ जब रह रही हूँ तब मूंछोंवाले मर्द को डरना चाहिए? छोटा बच्चा प्रहाद नहीं डरा। तुम डरो? छुटपन में कहानियाँ सुनानेवाली दादी की बात पर मुझे पूरा विश्वास है। कहती थी... सत्य को कभी धोखा नहीं!' 'पाप पनपेगा नहीं', उनकी इस बात का मुझे साक्षात अनुभव हुआ है। तुम ही कहो-जब मैं गंगा नदी में डूबी तब क्या तुमने समझा था कि मैं जीवित बाहर निकलेंगी? अब की तरह सर झुकाकर सोच में पड़े? भगवान् शिव सदा हमारे सत्य की रक्षा करे : , ,लेंगे। गेनारे उनको पता नहीं कितने काम होंगे। वे घसीटकर न ले जाकर अच्छी बातों से गौरव के साथ बुला रहे हैं। बहुत भले लोग जान पड़ते हैं। बेचारे वे भी क्या करेंगे? किसी ने उनके कान भर दिये हैं। ये भी विश्वास कर बैठे हैं। वैसे जो लोग इनके शत्रुओं की ओर के होंगे बे कहाँ छिपे बैठे होंगे, पता नहीं क्या करते होंगे? महादेव ही जानें। हम जैसे गॅवार क्या जानें?" चट्टलदेवी ने कहा।
दामोदर ने आदियम की ओर देखा, "पुजारीजी इनको प्रसाद दे दीजिए। ये हमारे साथ चलेंगे।" आदियम ने कहा।
पुजारी ने प्रसाद दिया। इसके बाद मायण और चट्टला दोनों ने उन लोगों का अनुगमन किया।
नक्षत्राकार की वास्तु-शिल्प की कुशल कारीगरी का कार्य तीव्रता से चल रहा था। प्रतिदिन की कारीगरी के विषय में विचार-विनिमय उसी दिन हो जाता। यह विचार-विनिमय केवल बातों का बतंगड़ न होकर आपस में समझने और वास्तुशिल्प के विषय में गम्भीर विवेचन करने और चिन्तन करने के लिए उपयुक्त अनुकूल साधन बना था। कार्य की गति तीव्र होने के कारण शाम्तलदेवी में भी एक नयी स्फूर्ति आ गयी थी। दिन का अधिक समय वह बिट्टियण्णा के साथ शिल्पियों की उन झोंपड़ियों में ही व्यतीत करती थीं। केवल भोजन-आराम इतना मात्र राजमहल में होता। शेष सारा समय मन्दिर-निर्माण के स्थान पर ही व्यतीत होता । शान्तलदेवी के केवल एक प्रहर का समय नृत्यशिक्षणालय में नियमानुसार व्यतीत होता। इस शिक्षणकार्य में कोई अड़चन नहीं पड़ी।
दिन व्यतीत होते-होते इस यात्री और शान्तलदेवी के कलाहदय निकट होते आये। यह यात्री शिल्पी कभी किसी से आवश्यकता से अधिक बात नहीं करता
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 267