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था। धीरे-धीरे उसका संकोच दूर हुआ। यह शान्तलदेवी के साथ बातचीत और विचार-विनिमय करने लगा था। पट्टमहादेवी के व्यक्तित्व, उनके विशाल हृदय, अनुकम्पा का भाव, दयापूर्ण प्रवृत्ति आदि को अच्छी तरह समझ गया था। इससे उनके विषय में शिल्पी की अतीव गौरव-भावना रही। उनके कला विषयक ज्ञान, उनके अर्थ-विवरण की रीति, उनके लक्ष्य प्रतिपादन-विश्लेषण आदि से बहुत प्रभावित ही नहीं, बल्कि बहुत चकित भी हुआ वह ।
__ इतना सब होते हुए भी कभी उन्होंने शिल्पी की निजी बातों के विषय में कोई बात नहीं की थी। और इस विषय में बड़ी सावधानी बरती थी। हाँ, उसके अन्तरंग को पीड़ा को जानकर उसे दूर करने का संकल्प कर लिया था। इधर-उधर की बातों के सिलसिले में पट्टमहादेवी व्यक्तिगत विचार छेड़ देती। व्यक्तियों का बरताव ठीक है या गलत-इसका विमर्श नहीं करतीं। केवल घटनाओं का विवरण दिया करतीं। अपनी निजी बातों को भी नहीं छिपाती। "सभी का जीवन सदा सुखमय नहीं कहा जा सकता। कुछ-न-कुछ कमियों रहती ही हैं। परन्तु इन्हीं को बढ़ा-चढ़ाकर चलेंगे तो दुनिया में पागल-ही-पागल भर जाएंगे।" यह बात एक दिन काम समाप्त होने के बाद शाम को राजमहल के मखमण्डप में बैठकर बातचीत करते हुए शान्तलदेवी ने कही।
"एक का अन्न दूसरे के लिए विष--यह एक प्रचलित कहावत है न?" धीरे से शिल्पी ने कहा।
शान्तलदेवी ने उसे एक विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखा। उसकी वह बात उस अवसर के लिए अप्रासंगिक लगी। फिर भी पूछा, "किसका अन्न, किसे विष बना है?"
"मेरे मन में कोई अन्य विचार नहीं आया। यूँ ही मेरे मुँह से बात निकल गयी। एक साधारण-सी बात। उस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं।" शिल्पी ने कहा।
"मैं तो इसे स्वीकार नहीं करती। अन्तरंग में अनेक विषय सुप्त पड़े रहते हैं। या फिर उन बातों को दबाकर मन में रख लिया जाता है जिससे प्रकट न हों। वहीं इस रूप में प्रकट हुआ हो सकता है।"
"न, न, ऐसा कुछ नहीं।
"खैर, जाने दीजिए। मैंने सो यों हो पूछा। आप अपना व्यक्तिगत कहनेवाले नहीं न? इससे कुछ छिपा रखा होगा। वह इस रूप में व्यक्त हुआ होगा। यों मेरी धारणा रही। इसलिए ऐसा पूछा-शान्तलदेवी ने कहा।
"इस बात को जाने दीजिए। असल में मैंने जब से यहाँ काम प्रारम्भ किया है ऐसी कोई बात मेरे मन में आयी ही नहीं। मानव-जीवन के अनेक पक्ष होते
268 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन