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से चिपके रहना नहीं चाहिए। नयी अभिव्यक्ति के स्फुरण के लिए हृदय का द्वार खुला रहे--इसके लिए कलाकार को अवसर देना चाहिए। अब राजमहल को इस सन्दर्भ में इस तरह के नवीन अभिव्यक्ति-से लगनेवाले चित्रों का एक संग्रह प्राप्त है। मेरी इच्छा है कि उन्हें इस सभा में आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करके आप लोगों के अमूल्य विचार जानें।...बिट्टियण्णा! उस पुलिन्दे को स्थपति के हाथ में दो। वे उसे खोलकर देखें; बाद में उसे सभी शिल्पी देखें।"
कुँवर बिट्टियण्णा ने स्थपति हरीश के हाथ में वह पुलिन्दा दे दिया। स्थपति उसे देखने लगा।
"एक बार और; इन्हें देखने में पर्याप्त समय लगेगा यह मैं जानती हूँ। मैंने इन चित्रों को पूरा देख लिया है। आप सब लोग इन्हें जब तक देखेंगे तब तक मैं अपने दूसरे काम सँभालकर लौट आऊँगी। यहाँ आपकी सहायता के लिए कुँवर बिट्टियण्णा रहेगा।" कहकर शान्तलदेवी वहाँ से अपने अन्तःपुर चली गयो ।
इधर शिल्पीगण उस यायावर शिल्पी के द्वारा रचित उन चित्रों को बहुत उत्साह के साथ देखने में लगे रहे। उधर शान्तलदेवी अन्तःपुर में प्रवेश करके उस विशेष काम की ओर गयीं जहाँ यह शिल्पी बैठा था। यह कक्ष मन्त्रणालय से लगा था। उनके अन्दर प्रवेश करते ही वह शिल्पी उठ खड़ा हुआ और उसने झुककर प्रणाम किया।
"बैठिए, बैठिए"-कहती हुई शान्तलदेवी बैठ गयीं। वह भी बैठ गया। रेविमय्या किवाड़ बन्द कर किवाड़ से सटकर खड़ा रहा।
"सन्निधान के पिताजी का स्वास्थ्य कैसा है?" शिल्पी ने पूछा।
'अब अच्छे होते जा रहे हैं। मैं उनकी जन्मपत्री ,गी। आप उसे देखकर उनके भविष्य के विषय में कुछ बातें बता सकेंगे न?"
"मैं शिल्पविद्या जानता हूँ।"
"सो तो कहने की आवश्यकता नहीं। आप केवल उसी शास्त्र में नहीं, सभी ललित कलाओं में निष्णात हैं यह अच्छी तरह समझ लिया है। इसके साथ ही वेदशास्त्र--पुराण आदि में भी आप अधिकारी हैं। इसका पता आपने जिन चित्रों को रूपित किया है. उससे बहुत अच्छी तरह लग जाता है। देवी-देवताओं के रूप-वर्णन सम्बन्धी सभी श्लोक आपको कण्ठस्थ होंगे। अच्छा छोडिए इस बात को। जन्मपत्री देखकर बताएंगे न?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"देख सकता हूँ। परन्तु फलित-ज्योतिष वासिद्धि के बिना सिद्ध नहीं होता। मैं घुमक्कड़ केवल सामान्य व्यक्तिगत कर्मानुष्ठान करता आया हूँ। अन्तरंग शुद्धि और बहिरंगशुद्धि, नित्यनिष्ठा से जो उन्नत स्तर की होती है उस स्तर की मुझमें है-- ऐसा विश्वास नहीं होता। ऐसी स्थिति में फलित ज्योतिष के बारे में कहना मुझ
252 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भा। तीन