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"जैसी आपको चाह। किसी के मन में तिक्तता न रहे, यही राजमहल चाहता है। अब आगे का कार्य शिल्पी महोदय की कल्पना के अनुसार उन्हीं के नेतृत्व में चलेगा! यह सभा आज के लिए समाप्त होती है। स्थपति ओडेयगिरि हरीश प्रातः राजमहल में आकर मुझसे मिल लें।" कहकर शान्तलदेवी उठकर चली गयीं। सभा विसर्जित हुई। सभी चल पड़े। रेविमय्या इस शिल्पी को साथ लेकर चल पड़ा।
नाम-धाम, कुल-गोत्र-सूत्र न बतानेवाले नये स्थपति के नेतृत्व में काम जोरों से चलने लगा। ओडेयगिरि के हरीश के साथ जो दो-चार शिल्पी आये थे, वे भी उसके साथ चले गये! जाने के पहले आदेश के अनुसार हरीश राजमहल में गया। वहाँ उसका योग्य रीति से पट्टमहादेवी ने सत्कार किया और कहा, "कृति मुख्य है, व्यक्ति गौण-इस सिद्धान्तानुसार राजमहल को बरतना होगा। राजमहल के लिए आपकी, आपके लिए राजमहल को अपेक्षा बनी रहे। इस प्रसंग से किसी के मन में कड़वाहट न हो-इस बात का ध्यान रखेंगे। कृति का रूप बदलने पर भी आप ही रहकर उसे रूप दें-यही राजमहल की इच्छा थी। निर्णय आप ही ने अपने हाथों में लिया, इसलिए मानना पड़ा। परस्पर अभिमान एक-सा रहे, यही राजमहल चाहता है। अब भी आप अपने मन को बदलकर यहीं रहें-यह मेरी इच्छा है। कलाकार के स्वातन्त्र्य को छीनने की अभिलाषा राजमहल को नहीं है।" शान्तलदेवी ने अपनी इच्छा प्रकट की थी।
हरीश ने भी कहा था, "अन्य किसी कार्य के लिए बुलावा आने पर अवश्य आऊँगा। केवल अब के लिए क्षमा चाहता हूँ।" वह जा भी चुका था।
वेलापुरी में नये सिरे से कार्य प्रारम्भ हो चुका था। इस शिल्पी ने दूसरे ही दिन एक शुभ मुहूर्त में खुदी नीव और स्थापित शंकु का स्थान-परिवर्तन किये बिना उसी से लगकर अपने रेखा-चित्र के अनुसार माप-जोखकर सूत्रबद्ध करके नीच को विस्तार देने के लिए चिह्न लगवाया। नींव की खुदाई जब तक चलती रही, तब तक शिल्पियों को इकट्ठा करके सम्पूर्ण मन्दिर को कैसे रूपित करना, किस-किस को क्या काम करना, आदि बातों के बारे में उन-उन की इच्छा जानकर उसके अनुसार काम बाँट दिया गया। बैटे हुए कार्य को समाप्त करने के लिए कालावधि उन्हीं शिल्पियों से पूछकर निश्चित की गयी थी। कार्य निश्चित करते समय हर कतार में हर शिल्पी के कला-कौशल के लिए अवसर दिया गया था। यों कार्यक्रम की व्यवस्था को
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 261