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जिस वैशाल्य का दर्शन होना चाहिए उसके लिए यहाँ जगह नहीं है-ऐसा लगता है। बहुत सूक्ष्म कलाकारिता की ओर मन का अधिक झुकाव होने के कारण इस चित्र का उद्भव हुआ है। महानता के स्वरूप को इस सूक्ष्म कलाकारिता ने कुछ ओछा-सा कर दिया है-ऐसा मुझे लगता है। जो भी हो। यह तो सच है कि एक नवीनता के लिए इससे अंकुरार्पण होता है। यह भी सत्य है कि ऐसी कल्पना अभी तक स्फुरित नहीं हुई है। परन्तु इस ढंग से वह ऐसा ही ६ तक हंगा: यह काला उिन है : गतिशीघ्र कृति साधना को चाहनेवाला उत्सुक मानव इतनी सूक्ष्म-कलाकारिता में समय गवाना चाहेगा क्या-यह प्रश्न भी उठ सकता है। राज्य में अन्यत्र कहीं इस कल्पना को रूप दिया जा सकता है।" हरीश ने कहा।
"यहीं इसे रूप दें तो नहीं होगा?" गंगाचार्य ने कहा।
"यहाँ अब कैसे सम्भव है ? अभी जिस रूपरेखा को स्वीकृत किया है, उसके अनुसार शंकु स्थापित करके नींव की खुदाई भी हो चुकी है। अब इसे लेना हो तो इस सबको पाटकर नये सिरे से शंकुस्थापना करनी होगी।" हरीश ने कहा।
"शंकु को बिना हिलाये, अब तक जो नींव खोदी गयी है उसी से समन्वित कर इस चित्र को तैयार किया गया है। इस चित्र के शिल्पी ने ऐसा बताया है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो तात्पर्य यह हुआ कि यह सब सोचकर ही राजमहल ने यह कार्य किसी अन्य शिल्पी को सौंपा हुआ है। राजमहल की इच्छा का हम विरोध भी कैसे कर सकेंगे?" हरीश ने एकदम कह दिया। उसमें असन्तोष का भाव अब तक जाग चुका था।
"व्यर्थ ही आशंका करके किसी को शीघ्रता में राय नहीं देनी चाहिए। बोकण! जाओ, उस शिल्पी को लिवा लाने के लिए रेविमय्या से कहो।" शान्तलदेवी ने कहा।
"ओफ ! वह है!!" हरीश के मुँह से तीव्र नि:श्वास निकला।
शान्तलदेवी की तीव्र दृष्टि हरीश पर पड़ी। उन्होंने समझ लिया कि व्यक्तिद्वेष रंग ला रहा है। फिर भी उसे हो सके तो दूर करने की इच्छा से पूछा
"तो क्या उस शिल्पी से स्थपति परिचित हैं?" सहज प्रश्न था।
"मुझे कुछ ज्ञात नहीं, एक घुमक्कड़-जैसा आदमी रेविमय्या के साथ राजप्रासाद के प्राकार में आ रहा था। मैंने पूछा कि कौन हैं ? उसने जवाब दिया 'एक शिल्पी हैं।' मैंने सोचा कि शायद वही हो।" हरीश बोला।
"हाँ, वे ही हैं।" शान्तलदेवी ने घोषित किया। "यह कभी हो सकता है ? असम्भव।" हरीश कहना चाहता था कि इतने
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 257