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में रेविमय्या के साथ शिल्पी के आ जाने से बात अन्दर ही रह गयी।
उस घुमक्कड़ शिल्पी ने रेविमय्या के साथ आकर, शिल्पियों के समूह को हाथ जोहकर प्रणाम किया। प्रान्तलदेदी ने एक खाली आसन की ओर निर्देश करके बैठने को कहा। वह बड़े संकोच के साथ बैठ गया।
"यहाँ अनेक प्रदेशों के श्रेष्ठ शिल्पी उपस्थित हुए हैं, हमारे स्थपतिजी सबका परिचय कराएंगे1" शान्तलदेवी ने कहा।
"सभी को उनका परिचय पहले हो।" स्थपति हरीश ने कहा। शान्तलदेवी ने शिल्पी की ओर देखा।
शिल्पी उठ खड़ा हुआ और बोला, "सबसे विनीत प्रार्थना है कि मुझे अन्यथा न समझें। व्यक्तिगत कारणों से मैं अपना अधिक परिचय देने में असमर्थ हूँ। इस विषय में कृपया कोई विवश न करें-यह मेरी विनती है। मैं एक शिल्पी हूँ और शुद्ध कर्नाटक-घराने का हूँ। किसी तरह की कीर्ति. नाम पाने की इच्छा, विरुदावली पाने की आकांक्षा या अभिलाषा के बिना जितनी कलाकारिता और विद्या को साधना द्वारा पाया है उसे कृति में परिणत करने मात्र से सन्तुष्ट हो रहना मेरे घराने की परम्परा है। मेरा घराना मनसा-वाचा-कर्मणा परिशुद्ध सात्त्विक है। इस बारे में मुझे गर्व नहीं, तृप्ति है।" इतना कहकर वह चुप हो गया।
"आपका गाँव?" हरीश ने पूछा। "कहना नहीं चाहता।" "आपके वंशीय और कौन हैं ?" दासोज ने पूछा। "कोई नहीं, मैं ही अन्तिम हूँ।" 'सन्तान?" गंगाचार्य ने पूछा। "जब मैंने कहा कि मैं ही अपने वंश में अन्तिम हूँ तब यह प्रश्न व्यर्थ है।" "आपका शुभ नाम?'' चाउण ने उत्साह से पूछा। "कोई प्रयोजन नहीं। इतना पर्याप्त है कि मैं एक शिल्पी हूँ।"
"सन्निधान को चित्रों का पुलिन्दा समर्पित करनेवाले आप ही हैं?" हरीश ने पूछा।
"क्यों आपको लग रहा है कि मैं नहीं हो सकूँगा?" उसका स्वर कुछ कटु हो आया।
"ऐसा नहीं, कुछ समय पहले एक शिल्पी आया था। स्थपति जानकर, वह मेरे पास आया। अपने चित्र देकर उसने पता नहीं क्या-क्या कहा। बहुत कुछ बताया। मैंने एक कल्पना सुझाकर चित्र बनाकर लाने को कहा। उससे नहीं बन पड़ा। किसी दूसरे के बनाये चित्रों को अपना कहकर यहाँ कुछ काम पाने की कोशिश कर रहा था। वही प्रसंग ध्यान में उतर आया..."
258 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन