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को अधिकाधिक कलापूर्ण बनाने का कौशल निहित है। यह सब तभी सम्भव है जब मन सहज हो, अधिकार और गई को यह सम्भव नहीं।" शान्तलदेवी ने बल देकर कहा।
"पट्टमहादेवीजी ठीक कह रही हैं।" चावुण ने कहा।
"बलिपुरवालों में सभी का एक ही भाव है। अंकुश रखने से कला का उद्गम नहीं होता। वह आत्मा की प्रेरणा है। कल्पना का फल है। वह तभी सम्भव है, जब अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हो।' पर मलोज ने कहा।
"तो स्थपति का क्या काम है ?" हरीश ने प्रश्न किया।
"स्थपत्ति सम्पूर्ण निर्माण का योजक है, निर्देशक है। कल्पना का सम्पूर्ण फल कैसा होना चाहिए, इसे प्रत्येक शिल्पी को समझानेवाला सूत्रधार है। वह शिल्पो का स्वामी नहीं।" कुमारमाचारी ने कहा।
"कल्पना की अभिव्यक्ति के स्वातन्त्र्य का यदि गलत अर्थ लेकर हरएक शिल्पी निज-निज अनुसार कुछ बनाकर रख दे तो स्थपति की क्या दशा होगी?" हरीश ने प्रश्न किया।।
"अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य का अर्थ, रासहीन घोड़े को सरपट दौड़ाना नहीं है। स्थपति क्या चाहते हैं, उसे किस तरह की रूप-कल्पना चाहिए, रूपित कर शिल्पी के हाथ में दें तो उसके अनुसार कृति का निर्माण करना, शिल्पी का काम है। उसमें कला की अभिव्यक्ति में शिल्पी को स्वतन्त्रता है। कृति-निर्माणकशिल्पी को छेनी कैसे पकड़ना, हथौड़ा कैसे पकड़ना, किस कोण से हथौड़ा चलाना, हथौड़े की चोट कितनी भारी या हल्की होना यह सब बताते जानेवाला स्थपति नहीं हो सकेग!। ऐस! स्थपति दण्ड देनेवाले न्यायाधीश की तरह क्रूर होता है। इससे कला के प्रति अन्याय ही होता है।" नागोज बोले।
शान्तलदेवी बैठी सुनती रहीं; उन्हें शंका होने लगी कि बात कहीं-से कहीं पहुँच रही है। उन्होंने कहा, "यहाँ सभा जो बैठी है, इसका उद्देश्य यह नहीं कि किसी के स्थान-मान आदि पर चर्चा करें। उद्देश्य है कि समग्र कृति को कैसे रूप देना चाहिए---इस विषय पर चिन्तन करना। कलाकार को अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य तो है ही। इस स्वतन्त्रता के रहने पर ही तो हम कलाकार को पहचान सकेंगे। सूक्ष्म और स्थूल काम करनेवाले कलाकारों में कहाँ भिन्नता है, किसकी कैसी शैली है आदि बातों को, कलाकृति को देखकर पहचान सकने योग्य व्यक्तित्व को हर कलाकार ने अपनी साधना के द्वारा विकसित किया है। इसी से कलाकार पहचाना जाता है। यहाँ निर्मित होनेवाले इस मन्दिर में इस तरह की कला का निर्माण होना चाहिए कि कलाकृति को देखकर कलाकार की पहचान की जा सके। और कला यदि एक बार की गयी कल्पना से अधिक सुन्दरता को प्राप्त कर सकती हो तो उस पहले की कन्यना
पट्टमहादेवी शाजला : भाग तीन :: 251