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कि इस कार्य को शीघ्र पूर्ण करना है। स्थान, मान, योग्यता आदि के कारण हो सकनेवाली मतभिन्नताओं को किसी तरह की विरसता का अवसर न देकर कार्य करना बहुत आवश्यक है। शायद आपमें बहुतों को ज्ञात न होगा कि कहाँ क्या हो रहा है और कौन क्या कर रहे हैं। शायद आप लोग समझते होंगे कि ये सब बातें राजमहल को ज्ञात नहीं होंगी। प्रत्येक बात राजमहल को ज्ञात है। अभी की कुछ बातों से ऐसा लगा है, श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ, राजमहल के प्रियपात्र होने से प्रभावशाली, इसलिए प्रभास स्थान मिला--यादि बातें जब-तब निकली हैं। निश्चित रूप से अमुक ने अमुक बात कही-यह राजमहल को स्पष्ट मालूम होने पर भी, उसे प्रकट करना नहीं चाहते। क्योंकि ऐसी बातें कभी किसी तरह के उद्वेग के कारण एकदम निकल पड़ी हो सकती हैं। बुराई करने के उद्देश्य से ऐसी बातें निकली हों तो उसके लिए दण्ड देना अनिवार्य होता है। अब तक जो हुआ है वह क्षमा-योग्य है- इस बात को राजमहल जानता है। नाम बताने की आवश्यकता नहीं। आज उद्वेग से निकली बात कल सोद्देश्य हो सकती है। इसलिए सबके समक्ष इन बातों को खुले दिल से स्पष्ट करने के साथ-साथ यह स्पष्ट करना भी राजमहल का उद्देश्य है कि व्यक्ति प्रधान नहीं, कृतिनिष्ठा ही प्रधान है। स्थान, मान नहीं। इस कारण से उम्र, अनुभव, विरुदावली आदि सभी बातें गौण ठहरती हैं। राजमहल की दृष्टि में स्थपति से लेकर साधारण कर्मी तक सभी समान हैं। चित्र की स्वीकृति, चित्रकार कौन है-इसे देखकर तो नहीं हुई। यह बात सभी लोग जानते हैं। रचना पर आधारित होकर निर्णय किया गया है। इस राज्य के सभी कामों में व्यक्ति प्रधान नहीं है, उसकी कर्तव्य-शक्ति प्रधान है। आज एक काम में जो प्रधान बनता है, कल किसी दूसरे काम के लिए वह प्रधान नहीं माना जा सकता है। प्रधान-अप्रधान की बात एक ही व्यक्ति पर लागू होने पर भी श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता की छाप नहीं लगायी जाती। यह बात सदा ध्यान में रहे कि व्यक्ति राजमहल का विश्वासपात्र किस हद तक है, इस पर सारी बातें अवलम्बित हैं। इसलिए पट्टमहादेवी की तरफ से आप सभी से मेरा यही नम्र निवेदन है कि आप लोग आपस में ऊँच-नीच का भेदभाव न रखें। काम करते समय नेता की इच्छा के अनुसार काम करनेवाले होने पर भी सब समान हैं। नेता भी सभी के बराबर ही है। नियोजित कार्य के मार्गदर्शक होने का यह मतलब नहीं कि यह अन्य सभी से श्रेष्ठ हैं। इस मन्दिर की कल्पना एक व्यक्ति की होने पर भी, उसे बहुमुखी प्रतिभा का एक स्थायी रूप बनकर रहना चाहिए । इसमें पद की भावना का होना उस एकता की साधना के लिए बाधक हो जाता है। इस वजह से आज राजमहल आपसे यही चाहता है कि वैयक्तिक प्रतिभा को उस एकता की ओर अग्रसर करने का दृढ़ निश्चय आप लोग करें। अपनी बात को स्पष्ट रूप से इस सन्दर्भ में कह
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 249