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हमारो होती ! ऐसी सुन्दरता दूसरों के वश में हो गयी है- यों कहनेवाले भी हैं। इन तीनों के संस्कार अलग-अलग हैं। उनके सामने कलाकृति को रखने पर तीनों के मत भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।"
" तो आपका तात्पर्य है कि कलाकार जिस किसी का सृजन करे वह सब उत्तम
हैं ?"
'कलाकार भी मनुष्य ही है न ? उसका भी एक संस्कार होता है। उसकी कृति से कलाकार के संस्कार का स्वरूप क्या है— इसका पता लगा लिया जा सकता
हैं ।"
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"अभी आपने जो चित्रित सामग्री दी है, उस सबको दो दिनों में ही चित्रित कर दिया ?"
" वह अतिमानव की बात होगी। मैंने ऐसा तो नहीं कहा न?" "हमसे मिलने के बाद आपने तो इतना ही समय माँगा था ?"
" कभी किसी मन में एक कल्पना उत्पन्न हुई थी। उस कल्पना के अनुसार जब कभी मुझे समय मिला तब उसे चित्रित करता आया। सन्निधान ने जब मुझे सूचित किया तो मेरे मन में एक सन्दिग्धता उत्पन्न हो गयी।"
"वह क्या ?"
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'अभी स्थान निर्दिष्ट होकर शास्त्रोक्त रीति से भूशुद्धि करायी गयी है। शंकुस्थापना भी हो चुकी है। यह शंकुस्थापना वास्तुशिल्पशास्त्र के अनुसार हुई है। मैंने जो चित्र दिये यदि ये स्वीकृत हों तो विधिपूर्वक स्थापित 'शंकु' का स्थान- परिवर्तन किये बिना सबको उसी में संयोजित कर सकने की साध्यासाध्यता पर विचार कर इस चित्र को उसी में युक्त रीति से संयोजित करना था। अपनी कल्पना के उस मन्दिर को निर्धारित माप-तोल के अनुसार उसी के परिमाण के योग्य रूपित करना था। केवल इसके लिए समय माँगा था। "
" तो 'शंकु' का स्थान परिवर्तन न करके मन्दिर का निर्माण होना चाहिए । यही आपका लक्ष्य था न ?"
"ऐसा न हो तो कितना समय व्यर्थ जाएगा ? महासन्निधान के विजयी होकर लौटने तक कम-से-कम मूल मन्दिर का निर्माण तो हो ही जाना चाहिए न ?" "तब आपने यह निर्णय कर लिया था कि आपका चित्र स्वीकृत हो जाएगा। यही लगता है। "
"ऐसा कोई निश्चय नहीं, व्यामोह या ममता भी नहीं। मेरा लक्ष्य केवल इतना ही था कि यदि स्वीकृत हो जाय तो कोई नयी कठिनाई उत्पन्न न हो । "
"
'अगर वह स्वीकृत हो तो आप स्थपति बनकर काम करेंगे ?"
"अभी हैं न एक ? वे ही बने रहें तो अच्छा हैं।"
256 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन