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बात जब कही तब यह मानना चाहिए कि उन्होंने मुझे ठेठ उजगु मानकर हो कहा होगा। यूँ वे मुझे शिक्षाएँ ही देती आयी हैं: अब ऐसा व्यों कह दिया? वे कभी ऐसा कहनेवाली नहीं।"
"तो आपने ऐसा कुछ किया होगा?" "हो सकता है। यही पहली बार तो नहीं ?"
"अब तो आप बड़े हो गये हैं। बच्चे की तरह कैसे देख सकती हैं ? उन्हें शायद डर हो कि आप उल्टे उन पर हावी न हो जायँ?" ।
"पट्टमहादेवी पर हावी होना। यह मुझसे कभी हो सकेगा?"
"तो जब सन्निधान विजय-यात्रा पर गये, तब आप वहाँ क्यों नहीं रहे ? क्या यह ठीक है?"
"भूल है, सरासर भूल। उसके लिए दण्ड दें, भुगत लँगा 1 परन्तु जिन्होंने मुझे पाला-पोसा उन्हीं की सहायता के लिए शायद मैं न जाऊँ-ऐसी शंका उनके मन में हो गयी है। यह मेरे लिए अत्यन्त पीड़ादायक है।"
"तो || सास समझरे हैं जिन पर पर तमका विश्वास नहीं।' "हो सकता है।"
"ऐसे में शंका निवारण के लिए उनसे बातचीत करना अच्छा है। सुनती हूँ कि वे क्षमागुण में पृथ्वी तुल्य ही हैं।" ।
"जहाँ तक मैं समझता हूँ, भूमाता बोल नहीं सकती। मगर उसमें चेतना है। उसी चैतन्य के द्वारा वह हमें अन्न देती है। परन्तु यह माँ ऐसी है, जिसके कान हैं, हृदय है, बोल सकती है। साथ-साथ यह साकारमूर्ति है। एक काल्पनिक भूमाता से इस माता का व्यवहार स्पष्ट और अधंयुक्त है।"
"तब तो अपनी भूल को स्वीकार कर लेना अच्छा है न?" "तुम भी साथ चलोगी?" "क्यों डर लगता है?" "तुम रहो तो अच्छा ।" "न, आप अकेले जाइए।"
वह तुरन्त निकला। परन्तु पट्टमहादेवी का दर्शन न कर सका। वे वहाँ नहीं थी। उन्हें सूचना मिली थी कि उनके पिता का स्वास्थ्य अच्छा नहीं. इसलिए पिता को देखने के लिए मायके गयी हुई थीं। दो दिन तक उसे पट्टमहादेवी के दर्शन ही नहीं मिले। पूर्व निर्णय के अनुसार रविवार के दिन शिल्पियों की सभा की व्यवस्था की गयी थी।
अपने वचन के अनुसार वह यायावर शिल्पो राजमहल के महाद्वार पर आया। वेलापुरी में निर्मित होनेवाले मन्दिर के काम पर लगे सैकड़ों शिल्पी भो
246 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन