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"ठीक, तब फिर सो जाओ।" "सारी नींद भाग गयी?"
"दीया जला हूँ? तुम्हें तो ईर्ष्या हुई न? उन सुन्दरियों के चित्र चाहो सो भी देख लो।"
"अब बीच में वे सुन्दरियाँ नहीं चाहिए। सुबह देख लेंगे।"
"थोडी देर चुपचाप आँखें मूंदकर पड़े रहो तो अपने आप नींद आ जाएगी। आप तो भोजन पर भी नहीं आये। भूख लग रही होगी, पेट में चूहे दौड़ रहे होंगे।"
"भूख के बारे में सोचने के लिए मस्तिष्क में जगह ही कहाँ थी। कोई चिन्ता नहीं। तुम सो जाओ।" फिर मौन छा गया। जल्दी ही नींद आ गयीं।
सुबह उठे। नैमित्तिक कर्मों से निवृत्त हुए। फिर बिट्टियण्णा ने सुब्वला से पूछा, "सुचला, पट्टमहादेवीजी को मुझ पर बहुत क्रोध आया होगा न?"
"नहीं, मुझे तो ऐसा कुछ लगा नहीं।" "तुमने देखा था?" "हाँ।" "कब?"
"आप जब शिल्पियों के पास गये थे तब इस पीछे के सभाकक्ष में में चट्टला के बच्चे को खिला रही थी। वह सो गया। बाद में विश्राम घर में आने पर आपको इन चित्रों में लीन देखा। मुझे कुछ सूझा नहीं कि क्या करूँ ? समय कैसे बिताऊँ। इसलिए एपहादेवीजी के यहाँ चली गयी।"
"उन्होंने मेरे बारे में कुछ कहा?" "कुछ नहीं।" "यों ही मुंह देखती बैठी रहीं?" "कुछ पुराना किस्सा सुना रही थीं।" "पुराना किस्सा सुनाने में क्या उद्देश्य था?" "मुझे क्या पता? शायद जानकारी देने के लिए कहा हो।" "हो सकता है, बिना आवश्यकता वे कभी किसी से कोई बात नहीं करती।" "हो सकता है। आप उनके बारे में मुझसे ज्यादा जानते हैं।" "हाँ।"
"तो आपको अगर ऐसा लगा है कि उन्होंने क्रोध किया तो उसका कारण आपसे हुई उनकी बातचीत ही हो सकती है।"
"हाँ।" "अगर मुझे बता सकते हो...' "मेरे काम में सहायक बनने की जब इच्छा हो तब मेरे पास आना---यह
पट्टमहादेवी शान्तला : भा। तीन :: 245