________________
राज-रहस्य है। तुमने क्या समझा कि तुम लोगों पर कोई जिम्मेदारी नहीं है? इसी समय उत्तर की ओर से चालुक्य या उच्चगि के पाण्ड्य आक्रमण कर दें तो राजधानी की रक्षा कौन करेंगे? राजधानी हमारे हाथ में सुरक्षित रही तो राज्य भी सुरक्षित । दूर-दूर के युद्धों में विजय प्राप्त करने पर भी राजधानी को खो दें तो राज्य विधवा- जैसा हो रहेगा। दृष्टिहीन शरीर की तरह लगेगा। राष्ट्र की आँख की रक्षा करना तुम्हारा और बोप्मदेव का काम है। ऐसा मत समझो कि यह छोटा काम है। छोटे बोप्मदेव, मरियाने और भरत एवं तुम-तुम ही लोगों से राष्ट्र के लिए बहुत ही आवश्यक काम होना है। तुम लोग राष्ट्र के लिए भावी निधि हो। तुम लोगों की अच्छी देखभाल करने पर तुम लोगों से आगे चलकर राष्ट्र का हित होगा--यह मन्त्रिमण्डल का निर्णय है। तुम लोग समर्थ हो- इसे समझकर ही ऐसा निर्णय किया गया है। मुक्त अश्व की तरह का अधिक स्वच्छन्द मन ही अच्छा नहीं। ठीक है या गलत, युक्त है या अयुक्त-इससे अच्छा होगा या बुरा-इन बातों पर सोच-विचार किये बिना क्रोध करोगे तो उसका परिणाम बुरा ही होगा। तुम्हें अपने व्यक्तित्व को अच्छा विकसित करना हो तो संयमी रहकर साधन करना होगा। तुम्हें विश्वास होना चाहिए कि जिन्होंने तुम्हारा पालन-पोषण किया वे कभी तुमको कुचलेंगे नहीं। एक साथ माँ-बाप को तुमने खोया, इस कारण से तुम्हें हमने लाड़ से पाला-पोसा। कुमार बल्लाल, छोटे बिट्टि, विनय इन बच्चों को इतना प्रेम नहीं मिला जितना तुमको मिला। शायद हमारे लाड़प्यार ने तुम्हें हठी बना दिया है। तुमने क्रोध किया तो उसका कारण हम ही हैं। हमारा लाड़-प्यार ही कारण है। मैं बहुत कह गयी। सभी बातों पर फिर से सोच लो। अगर हमारे प्यार का कोई वास्तविक मूल्य हो तो तुम सचेत होकर सही ढंग से विचार करोगे-ऐसा मेरा विश्वास है। तुमने मेरे पास नृत्याभ्यास किया है। अब निर्मित होनेवाले मन्दिर में जो भित्तियाँ बनेंगी उनमें नृत्य-भंगिमाओं का विन्यास कर एक शिल्पी ने रूपित किया है। उन्होंने जो रेखाचित्र बनाये हैं उनका निरीक्षण प्रसिद्ध शिल्पी दासोज और गंगाचारी कर रहे हैं। तुम्हें शिल्पकर्म में भी अभिरुचि एवं आसक्ति है। उन्हें तुम देखना चाहो तो मेरे साथ आओ। उदयादित्यरस को इस मन्दिर के कार्य में मेरा सहायक बनकर रहना चाहिए था। अन्य कार्य हेतु वे आसन्दी गये हुए हैं। तुम उनके स्थान पर रहकर मेरे साथ रहोगे तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। इसमें कोई दबाव या आदेश नहीं। वे लोग यहीं सामने के बरामदे में बैठे हैं। मैं भी वहीं रहूँगी। तुम्हारी इच्छा हो तो वहाँ आ जाओ।" कहकर शान्तलदेवी वहाँ से चल पड़ी।
थोड़ी देर सब ओर स्तब्धता रही। इसके बाद सुव्वला ने कहा, 'पट्टमहादेवीजी को दुःख ही हुआ होगा। उन्हें कष्ट देने में क्या भलाई भला?
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 239