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परन्तु निर्णय करने का दायित्व मुझ पर डाल रखा है। अब स्वीकृत चित्र के अनुसार कार्य प्रारम्भ हो चुका है। परन्तु अब इस स्थिति में उसमें परिवर्तन करें तो उसका क्या परिणाम होगा? उसकी अच्छाई-बुराई पर विचार करना है। तब निर्णय लिया जा सकता है। आप आत्मीय हैं। आप लोगों की राय मेरे लिए मान्य है। इसीलिए पहले आप लोगों से विमर्श करने की इच्छा हुई।" शान्तलदेवी ने कहा।
"हम आपके कृतज्ञ हैं। जो वास्तव में कलाकार हैं और शिल्पशास्त्र से भली भाँति परिचित हैं-वे इस रचना को पूर्णरूपेण चाहेंगे। इस रूपरेखा के अनुसार मन्दिर का निर्माण हो तो वह शाश्वत प्रतिमान बन जाएगा, स्थायी कीर्ति का भाजन बनेगा। सहस्रों की संख्या में शिल्पी आएँगे तो भी इस महान् कार्य में सबके लिए काम है। हर एक को अपना-अपनी प्रतिभा दशमि के लिए सूक्ष्म अंकन के लिए इसमें बहुत अवकाश है। परन्तु इसे स्वीकार करने पर फिर से नींव बदलनी होगी। यदि इस स्थान को स्वीकार न करें तो दूसरा स्थान खोजना होगा। समय व्यर्थ जाएगा। लेकिन रेखांकन हैं बड़े प्रभावी।" गंगाचारी ने कहा।
"मेरे लिए आपका इतना आश्वासन पर्याप्त है। अब और दो-तीन दिनों में सभी शिल्पियों को एकत्रित कर उनके सामने इसे प्रस्तुत करूँगी। फिर सबकी राय लेकर अन्तिम निर्णय करेंगे तो ठीक होगा न?"
"जो आज्ञा। उस दिन पहले इस विषय में बोलने के लिए मुझे आदेश न दें-इतनी कृपा हो। दूसरों की राय लेकर फिर पीछे आवश्यकता पड़े तो अन्त में मेरी बात होगी। मेरी इस बिनती को स्वीकार करें।" दासोज ने कहा।
"ठीक है। रविवार के दिन शिल्पियों की सभा होगी।" कहकर शान्तलदेवी उठ खड़ी हुईं। शिल्पी और बिट्टियण्णा सब उठ खड़े हुए। शान्तलदेवी महल के अन्दर चली गर्यो । बिट्टियण्णा भी उनके पीछे-पीछे चला गया। शिल्पी राजमहल से बाहर चले गये।
शान्तलदेवी अपने विश्राम-गृह में आर्यो। बिट्टियण्णा सोचता दरवाजे पर हो पास खड़ा रह गया कि अब उसे क्या करना चाहिए। फिर अपने विश्रामागार की ओर बढ़ गया।
नौकरानी सान्तब्वे ने उसके पास जाकर कहा, "पट्टमहादेवीजी बुला रही हैं।" वह फिर आकर पट्टमहादेवी के शयनागार में गया। शान्तलदेवी ने कहा, ''आओ, बैठो!" वह बैठ गया।
"सब देख लिये?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"नहीं, कुछ को देखा है। इन शिल्पियों की बातों को सुनने में ध्यान लग जाने के कारण इस ओर ध्यान न रहा।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 241