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भी चाहें वहाँ निवास की व्यवस्था करो। ये जो भी सुविधा चाहें, सब दे देना।"
रेविमय्या "आइए" कहता हुआ आगे बढ़ा। शिल्पी ज्यों-का-त्यों खड़ा रहा। शान्तलदेवी ने पूछा, "कुछ कहना है?" "वह पुलिन्दा..."
"उसे यहीं रहने दीजिए। मैं उसे धीरे-धीरे आदि से अन्त तक समग्र रूप से देखूगी। दो दिनों बाद आपको फिर बुलवा लूंगी। तब तक आप आराम से रेविमय्या के अतिथि बनकर रहिए। अगर आप एकान्त की अभिलाषा करें तो वह उसकी भी व्यवस्था कर देगा।"
"दो दिन बेकार बैठे खाता रहूँ।"
"काम को किस रूप में करना चाहिए-इस बात का निश्चय जब तक न हो तब तक ऐसा ही कीजिए।
"जब कहेंगी तब आकर दर्शन कर लूँगा। तब तक मुझे स्वतन्त्र ही रहने दीजिए।"
"आपकी इच्छा। आज दशमी वृहस्पतिघार है। परसी दशा--रविवार को इसी समय आ सकेंगे?"
"जैसी आपकी आज्ञा।" "ठीक है, आप जाएँ।" शिल्पी रेविमथ्या के पीछे-पीछे चला गया । शान्तलदेवी ने पूछा, "सन्निधान को कैसा लगा?"
"इस शिल्पी की यह एक नयी ही सृष्टि है। हम सभी का प्रोत्साहन उसे मिलना चाहिए। इस शास्त्र से अच्छी तरह परिचित तुमको इस विषय में विवरण देने की आवश्यकता नहीं।"
"अब सन्निधान इस विषय में जो निर्णय सुनाएँगे, उसके अनुसार मैं आगे बढ़ेगी।"
- "सोचने और निर्णय करने के लिए अब समय नहीं है। मन अब युद्धरंग में केन्द्रित है। इस विषय में मुझसे अधिक जानकारी रखती हो। इसलिए इस विषय में सोचने-निर्णय करने का सर्वाधिकार हमने पट्टमहादेवी को दे दिया है। हम लौटने पर देखकर प्रसन्न होनेवाले मात्र हैं।" इतने में एक दासी ने आकर सूचना दी कि हेगाड़े मायण और हेगड़ानी चट्टलदेवी आयी हैं।
__ " भेज दो।" कहकर बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर देखकर कहा, "हम इस सन्दर्भ को भूल ही गये थे।"
"तलवार को सान पर चढ़ाने, या धनुष का टंकार ही जब दिमाग में भर गया है, तब शेष बातें याद कैसे रहेंगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तौन :. 235