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अमर हुआ। जानते हो न?"
"हाँ, सत्यकाम की माता।'
"उसका नाम जो अमर हुआ उसका कारण उसकी सत्यप्रियता है, और कुछ नहीं। उसने इस उद्देश्य से सत्य नहीं बोला कि नाम अमर हो जाय । सत्य कहने की प्रवृत्ति मानव की परिपूर्णता की परम साधना है। इसीलिए उस सत्य का मूल्य है। उसे कहनेव ने न मूग है। उसने सन्म दड़ा नन उसके मन में संकोच नहीं था, कटुता नहीं थी। जुगुप्सा नहीं थी। कार्य-कारण संयोग से होनेवाली कुछ क्रियाओं को जब महत्त्व दिया जाता है तब मन में भ्रम पैदा हो जाता है। तब उस क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। क्रिया में निर्लिप्तता हो, भ्रम न हो तब जाबाली की तरह बरतना होता है। तब कीर्ति के पात्र होते हैं। इसी विषय को कई प्रसंगों में भगवद्गीता में कहकर भगवान् कृष्ण ने अनासक्तियोग का निरूपण किया है। अर्जुन जैसा व्यक्ति जब पीछे हटना नहीं चाहता था तब उसे अनासक्तियोग-फलनिरपेक्ष कर्तव्य-पालन का उपदेश दिया। हमारे स्थपति आज कुछ घमण्ड दिखावें भी तो कल उनकी आँखें खुलेंगो और ठीक भी हो सकेंगे। अगर ड्योढ़ी कम ऊँची हो तो तनकर उसके अन्दर जानेवाला उससे टकरा जाएगा, तब वह अपनी ही अन्त:प्रेरणा से सिर झुकाकर चलेगा न? यह भी वैसा ही है। अच्छा, अब काम की बात करेंगे।"
"काम तो तेजी से चल रहा है। स्थपति भी एक क्षण का समय व्यर्थ नहीं करते। दूसरों को भी व्यर्थ गँवाने नहीं देते।"
"यह आवश्यक है। हरीश का रेखाचित्र यहीं है या उस यात्री को दे दिया है?"
"उन्होंने माँगा नहीं: माँगते तो भी अनुमति के बिना देने का प्रश्न ही नहीं
था।"
"उसे मैंगवाकर रखो। एक बार और अच्छी तरह देखना है। उस शिल्पी के अंकन से तुलना भी करनी है, यह समझना भी है कि कहाँ अन्तर है!11
उदयादित्य ने प्रारूप मंगवाये। दोनों ने एक साथ बैठकर देखे। उस समय प्रचलित चतुरस्त्र आकार का या गजपृष्ठ प्रकार का भी नहीं था। दक्षिण, उत्तर और पश्चिम की ओर तीन षट्कोणाकार के अन्तर-गृह की योजना थी और उन्हें मिलानेवाले विषमबाहु और चतुरस्त्र विशाल मुख-मण्डप और एक कल्याण मण्डप भी उसमें शामिल था। मन्दिर के द्वार तक पहुँचने के लिए आदमी के बराबर की ऊँचाई पर स्थित उत्तर दक्षिण में फैली सीढ़ियाँ, मन्दिर की नींव आदमी के बराबर की ऊँचाई पर, उस पर भव्य मन्दिर का शानदार निर्माण। तीन विमान (गोपुर) और अन्दर सजी दी भुवनेश्वरी थी। कलात्मक ढंग से चतुरस्त्र युक्त षदकोण सजे थे। अन्दर के स्तम्भों को चार चार की एक इकाई बनाकर एक
226 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भा! तोन