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भी आपकी योग्यता के अनुरूप स्यान आपको नहीं मिला है।"
"तुम एक मुग्ध व्यक्ति हो। तुम एक ओर से साले लगते हो, दूसरी ओर से भाई। तुम्हारी यह रुचि अद्भुत है। तुम ही कुछ सोच देखो, उदय । मैं एक सामान्य हेगड़े की बेटी; स्वप्न में भी मैंने नहीं सोचा था कि मैं कभी पट्टमहादेवी बनूँगी। मुझे ऐसो कोई आकांक्षा भी नहीं थी। परन्तु जब यह सब मिला, तब मेरे भी अन्तरंग में अहंकार उत्पन्न हुआ। हाँ, उसके प्रदर्शन के लिए अवसर नहीं मिला। महामातृश्री के व्यक्तित्व ने मेरे उस अहंकार को वहीं मिटा दिया। ऐसी स्थिति में उसे अहंकार का होना सहज ही है। सामान्यतः कलाकारों में यह स्वप्रतिष्ठा की भावना रहती ही है। हम ही को चाहिए कि उन्हें देखकर उनकी कला का मूल्य आँकें।"
__ "उन्हें स्थपति बनाया तो क्या महत्त्व देने का-सा नहीं हुआ? इस सम्मान के बाद तो कुछ संयम...?"
"शीघ्रता में कहीं उनके साथ भी...?"
"वृद्ध दासोज, जो पट्टमहादेवी के गुरु हैं, वह मेरे सामने क्या चीज हैं? यही कहते फिरते हैं।"
"उनके सामने कहा?"
"नहीं। उनके पीछे पीछे किसी समवयस्क से बोल रहे थे, यही सुनने में आया। और भी कि वे सब पुरानी लीक पर चलनेवाले, अपने को ही श्रेष्ठ समझनेवाले हैं। गतानुगतिक हैं। जबकि वे स्वतन्त्र नूतन पथों के प्रदर्शक हैं। यह उठते यौवन का अहं ही है। आशा-आकांक्षा न हो तो नये विचार सूझेंगे ही नहीं। 'मेरी इस भयो प्रकल्पना से इस निर्माण को एक शाश्वत महत्व और विश्व में कीर्ति मिलेगी'--ऐसा ही कुछ कहते फिरते हैं।"
"इस राष्ट्र की कला को विश्व में ख्याति मिले, यह हमारी भी अभिलाषा है।"
"विश्वख्याति का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। हमने जिस विश्व को देखा है वही? या हमने जिसकी कल्पना की है, या जिसे अपने चर्मचक्षुओं से नहीं देखा वह चतुर्दश भुवन?"
"मेरा विश्वास है वह कला विश्व-विख्यात हैं जो आचन्द्रार्क स्थायी रह सकती है। मैंने चतुर्दश भुवनों को देखा नहीं। वहाँ की ख्याति कैसे मिल सकती है, इसका अनुमान भी मैं नहीं लगा सकती। मैं नश्वर हूँ। इस शरीर के द्वारा पहचानी जाती हूँ। यह भी नश्वर है। यह पहचान सुरक्षित रहे, इसके लिए अमुक की बेटी, अमुक की पत्नी आदि-आदि कहा जाता है। इन सबका मूल्य कब तक, जब तक यह शरीर हैं। परन्तु ख्याति शरीर को नहीं मिलती। जो काम किया जाता है उसे ख्याति मिलती है । जाबाली कौन थी? उसके माँ-बाप कौन हैं? पति कौन हैं ? उसका रूप कैसा था?- यह सब किसी को भी मालूम नहीं। पर उनका नाम
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 225