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आस्था का नितान्त मेरा अपना विषय है। यह महात्मा के मन की सूझ है: इसका अपना महत्त्व है। मैं मतान्तर की ही विरोधिनी हूँ। महत्त्व की विरोधिनी नहीं। मुझे कुछ भी सन्देह नहीं कि वे एक सिद्धपुरुष हैं। उनकी गहरी निष्ठा, अटल विश्वास, उनका चिन्तन-मनन और तपस्या फलवान है। इसीलिए उस शिल्पी में मेरी विशेष अभिरुचि है।"
"उससे आपने बातचीत की; आपको कैसा लगा?"
"उसकी कल्पनाएँ स्पष्ट हैं। भव्य से भव्यतर की ओर। स्वप्नदर्शी । उसके मन में अद्भुत कल्पना का होना असाध्य नहीं। हो सकता है उसके स्वप्न देखने की यह प्रवृत्ति ही उसके जीवन का हल न होनेवाली समस्या हो। उसकी कोई निश्चित भव्य कल्पना केवल एक स्वप्न बन गयो है, इससे उसे तीव्र निराशा का शिकार होना पड़ा है। उसमें अब फिर से उस भावुकता को दीपित करना होगा।'
"इस सबकी सार्थकता के लिए तो वास्तव में उसमें श्रेष्ठ कलाकारिता होना चाहिए न?"
"इतनी त्वरा से कैसे काम चलेगा? कलाकारिता की श्रेष्ठत्ता का परिचय हो जाने के बाद ही हम आगे बढ़ेंगे न?"
"फिर भी अपात्र में विश्वास रखना...?11
"कल की तुम्हारी बात और आज की बात में अन्तर प्रतीत होता है। मुझे लग रहा है कि उसमें कोई विशेष बात है, उदय।"
"हुँ हैं तो..., परन्तु...?"
कहने लायक नहीं है क्या ?"
"नहीं, लेकिन मैंने एक काम किया है, जिसके लिए पट्टमहादेवीजी से पूर्वानुमति नहीं ली। क्षमादान दें तो कहूँ?"
"आचार्य के उन शिष्यों की तरह का कोई काम कर बैठे हो क्या?"
"मैंने ऐसा तो नहीं किया। बस मुझमें कुतूहल जगा कि देखू कितना काम किया है और किस ढंग से किया है ? इसके लिए नदी तीर के उस मण्डप की ओर मेरा यह कुतूहल ही मुझे ले गया, जहाँ उसने अपना निवास बताया था।"
"इसी रूप में...?"
"नहीं, वेश बदलकर गया था। परन्तु वह शिल्पी वहाँ नहीं था। ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि वहाँ कोई रहता है। रहकर चला गया हो ऐसा भी कोई वहाँ प्रमाण नहीं मिला। इसीलिए मैंने हो आने की अनुमति मांगी। स्वीकृति मिलने पर ही बात बताने की इच्छा थी।"
"जब तुम गये थे, हो सकता है तब वह कहीं जलक्रीड़ा या भोजन करने गया हो।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 223