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कह रही थीं तब मेरे भी मन में कुछ सुझा. कुछ कल्पनाएँ हुई। आज्ञा हो तो अपनी कल्पना के अनुसार एक चित्र बनाकर प्रस्तुत करूँगा।"
"कितने दिन लगेंगे?"
"मेरे लिए तो दूसरा काम है नहीं। थोड़ी-सी विश्रान्ति, नित्यकर्म आदि को छोड़कर शेष सारा समय इसी के लिए विनियोग किया जाएगा। शायद दो तीन दिन का समय काफी होगा।"
"तब तक मन्दिर के कार्य को स्थगित करना होगा?"
"अब तक हुआ ही क्या है ? खाली खुदाई और पत्थर को ठीक करना। किस काम के लिए कौन-सा पत्थर उपयुक्त है-इसे देख पत्थर का वितरण। मुझे जो सूझा वह कल अमान्य भी हो सकता है इसलिए कार्य चालू ही रहे। अब मुझे आज्ञा हो।"
"कहाँ मुकाम है?" "यगची के तौर पर मधुवन से सटे मण्डप में।" "वहाँ क्यों? अरस जी आपले लिए स्थान की म्यवस्था कर देंगे।" "न, वहाँ शान्ति है।" शिल्पी उठ खड़ा हुआ।
"इस कार्य के लिए निश्चित भूमि, स्थान और उसका विस्तार आदि सब विषय अरस जी आएको समझा देंगे। शिल्पीजी की अन्य सभी सुविधाओं को उनकी इच्छा जानकर व्यवस्था कर देने का उदयादित्यजी ध्यान रखेंगे न?11
"जो आज्ञा," उदयादित्य उठ खड़े हुए। "अच्छा, शिल्पीजी।" शान्तलदेवी भी उठ खड़ी हुई। "आइए।" कहकर उदयादित्य ने कदम बढ़ाया।
"शिल्पीजी यादवपुरी आये हैं, यह बात कोई जानने न पाए।" शान्तलदेवी ने कहा।
"दूसरों को मालूम हो जाय तो नुकसान क्या है?" "यह उनकी इच्छा है। हमने बचन दिया है।'' "हम उसका पालन करेंगे। आइए।" उदयादित्य आगे बढ़े।
विनीत होकर पीछे शिल्पी आ रहा था। उसने धीरे से कहा, "पहले बताया होता कि आप महासन्निधान के भाई हैं।''
"राजमहल में आने पर पता लगेगा मैं कौन हूँ—यह पहले ही बता दिया था न? परस्पर विश्वास न हो तो खुले दिल से विचार-विनिमय कैसे हो सकेगा? यह एकपक्षीय व्यवहार नहीं हो सकता। आप आत्मीयता से अपने मन को खुला रखें तो हम भी वैसा ही करेंगे। आप मन का किवाड़ बन्द रखें और हमसे खोल रखने को कहें तो कैसे होगा?"
"अरस जी ने हमें अपराधी ठहराया। उसके लिए जो दण्ड देंगे, भोगेंगे।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 22: