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"ऐसा न होगा, आश्वासन दिया गया है न?11 "फिर भी ऐसा प्रसंग आये तो मैं यहाँ नहीं रहूँगा।"
"आपकी मर्जी। उस बात को जाने दीजिए। श्री आचार्यजी की आकांक्षा का भी फल मिला। आप स्वयं यहाँ आये। इस मन्दिर का निर्माण उन्हीं के आदेश के अनुसार हो रहा है। आपके यहाँ आने की बात उन्हें मालूप हो जाय तो वे बहुत खुश होंगे।"
"मैंने सोचा न था कि मेरे यादवपुरी आने की बात राजमहल तक पहुंचेगी। अब वही मैं हूँ यह बात सन्निधान और अरसजी को भी मालूम हो गयी है। यह बात और किसी को मालूम न पड़े, इतना यह आश्वासन दें तो मैं यहाँ रहूँगा, नहीं तो मैं आज ही चला जाऊँगा।"
"आपको इस विषय में आश्वासन दूंगी। वहाँ जब आप आये थे तब आपको देखकर अभी भी पहचाननेवाले केवल आचार्यजी और उनके दो शिष्य हैं। अब उदयादित्य अरस जी जानते हैं, मैं जानती हूँ; सन्निधान को भी यह मालूम है। रेविमय्या जानता है। और किसी को कुछ भी मालूम नहीं होगा। ठीक है न?"
"इतना कृपा करें तो मैं कृतार्थ हूँगा।"
आसनों के आने से उदयादित्य अरस के आने की सूचना मिली। पीछे ही वे भी यहाँ उपस्थित हो गये, साथ ही एक चासी खादों को पुलिन्दाले आया। उस परात को पास ही एक चौकी पर रखा। उदयादित्य उनके लिए रखे आसन पर आसीन हुए।
"शिल्पीजी. इन रेखाचित्रों को देख लें। इच्छा हो चुन लें; यदि वह अन्य किसी को सौंपा न होगा तो स्थपति से कहकर वह काम इन्हें सौंप देंगे।"
__"जो आज्ञा." उदयादित्य ने उन सबको दिखाया। शिल्पी ने बड़ी श्रद्धा और लगन के साथ देखा।
"पोयसल वंश अब एक समुद्र नींव पर स्थित है, कन्नड़ जनता सुसंस्कृत है। उनको कला-कल्पना की तुलना विश्व की किसी भी कल्पना से नहीं हो सकती। पहाड़ पर महान् मूर्ति का निर्माण किया। पहाड़ ही को छेदकर मन्दिर का निर्माण किया। उनकी उस बृहत् कल्पना में भी एक-एक अणु में अपने कल्पना चिलास को रूपित किया है। उस कला-विलास ने पोयसलकानीन कला के नाम से ख्याति पायी है। इस राज्य में उस कलाकारिता का विकास हो-यही सन्निधान की आकांक्षा है। हम सबकी भी यही अभिलाषा है। इसलिए अनुकरण से बहुत दूर के इस रेखाचित्र को हमने स्वीकार किया है। इस पर आपकी क्या राय है?'' उदयादित्य ने पूछा।
"प्रत्येक शिल्पी की अपनी-अपनी कल्पना होती है। जब पट्टमहादेवीजी
220 :: पट्टमहादेवी शास्तल्ग : भाग तीन